बुधवार, 24 अक्तूबर 2007

कार्बन क्रेडिट: धुंए का पैसा


जब प्रकृति का डंडा चलने लगता है तो कोई नहीं बच पाता है। चाहे वो भूकंप हो या सुनामी। इससे बचाव के लिए कोई मिसाइल डिफेंस सिस्टम या एटम बम काम नहीं आते हैं। जबकि ये प्राकृतिक आपदाएं ग्लोबल वॉर्मिंग के प्रकोप के लाखवें हिस्से से भी कम हैं। तो आप अंदाजा लगा सकते हैं कि ग्लोबल वॉर्मिंग का क्या असर हो सकता है। अगर ग्लोबल वॉर्मिंग को नहीं रोका गया तो सैकड़ों देशों को जल समाधि लेने को मजबूर होना पड़ेगा। और फिर एक दिन ये धरती आग के गोले में तब्दील हो जाएगी। इसका अंदाजा हमें और अमेरिका, ब्रिटेन, जापान जैसे उन देशों को भी है जिन्होंने पर्यावरण को इस दहलीज पर लाने में सबसे अहम योगदान किया है। केवल अमेरिका ही एक तिहाई ग्लोबल वॉर्मिंग का जिम्मेदार है।

आज विकसित देशों के पास सबकुछ है। यहां तक की उनके स्लम्स एरिया (झुग्गी बस्ती) के मकानों में भी सेंटरलाइज एसी होते हैं। जो कि दिन दोगुनी रात चौगुनी ग्रीन हाउस गैस उगलती रहती हैं। लेकिन अब विकसित देशों को इस बात का डर है कि कहीं उनका ऐशो आराम, हराम में न बदल जाए। और ये तभी होगा जब भारत और चीन जैसे देश विकसित बनने के लिए उनका रास्ता अपनाएंगे। क्योंकि उन्होंने विकास के क्रम में ग्रीन हाउस गैसों और कार्बन डाइऑक्साइड के उत्सर्जन को रोकने के लिए कुछ नहीं किया था। आज विकसित देशों के पास सबकुछ है लेकिन गर्दन पर ग्लोबल वॉर्मिंग की तलबार भी लटक रही है।

ग्लोबल वॉर्मिंग के खतरे से बचने के लिए 1997 में जापान के क्योटो शहर में हुए वर्ल्ड अर्थ समिट में से क्योटो प्रोटोकॉल निकलकर सामने आया। आज इसके 150 से ज्यादा देश सदस्य हैं। इन देशों ने मिलकर 2012 तक ग्रीन हाउस गैसों के उत्सर्जन को 1990 के स्तर से 5.2 फीसदी नीचे लाने का लक्ष्य रखा है। इसी क्योटो प्रोटकॉल में कार्बन क्रेडिट का जन्म हुआ।

कार्बन क्रेडिट यानि प्रकृति को डॉलर में तौलना। इसे ऐसे समझना बेहतर होगा। भारत, चीन, ब्राजील या तीसरी दुनिया के किसी देश में अगर कोई प्रदूषण फैला रहा है। हालांकि वो देश अनजाने में, अपने लोगों के जीवन यापन के लिए ऐसा कर रहे हों। पर उसका नुकसान पूरी दुनिया को हो रहा है। लेकिन इसका सबसे ज्यादा दुख विकसित देशों को हो रहा है क्योंकि इसे रोकने के लिए उनका कोई भी ताकत काम नहीं आ रहा है।

अब ये विकसित देश, तीसरी दुनिया के देशों को ये समझाने में जुट गए हैं कि प्रदूषण से सभी का नाश हो जाएगा। जो कि बिल्कुल सच है। लेकिन सवाल ये पैदा होता है कि जो किसान जंगल काटकर लकड़ी बेचकर अपना जीवन यापन करते हैं। अगर उन्हें दूसरा सहारा नहीं मिला और उसने लकड़ी काटना भी छोड़ दिया तो वे तो आज ही मर जाएंगे। जबकि ग्लोबल वॉर्मिंग से मरने में उसे कुछ वर्ष लगेंगे या शायद इस जनम में ग्लोबल वार्मिंग से न भी मरें।

इसी का उपाय कार्बन क्रेडिट में ढूंढा गया है। यानि अगर आप कार्बन डाइऑक्साइड का कम उत्सर्जन करेंगे तो आपको इसके बदले कार्बन क्रेडिट दिए जाएंगे। जिसे बेचकर आप पैसे कमा सकते हैं। यूनाइटेड नेशन की देखरेख में सदस्य देशों और उनके संस्थानों को कार्बन क्रेडिट इश्यू किया जाता है। ये क्रेडिट क्लीन डेवलपमेंट मैकेनिज्म(CMD)के जरिए तय किया जाता है। अगर किसी कंपनी ने कार्बन डाइऑक्साइड घटाने के लिए अच्छी तकनीक का सहारा लिया है। तो उसके बदले उसे कितना कार्बन क्रेडिट मिलना चाहिए ये फैसला सीएमडी के जरिए ही होता है। साथ ही सीएमडी के तहत ही ज्यादा कार्बन डाइऑक्साइड उत्सर्जन करने वाली कंपनियां भी कार्बन क्रेडिट खरीदकर अपना उत्पादन जारी रख सकती हैं। स्टील,चीनी,सीमेंट और फर्टिलाइजर बनाने वाली कंपनियां ज्यादा कार्बन डाइऑक्साइड का उत्सर्जन करती हैं।

डॉक्टर साहब,कार्बन क्रेडिट के चक्कर में मेरे बेटे ने सांस छोड़ना ही बंद कर दिया!

अगर कोई कंपनी एक टन कार्बन डाइऑक्साइड का उत्सर्जन कम कर रही हैं तो उसे एक कार्बन क्रेडिट मिलेगा। और एक कार्बन क्रेडिट की कीमत इस समय अंतरराष्ट्रीय बाजार में करीब 20 डॉलर चल रहा है। फिलहाल अमेरिका में शिकागो क्लाइमेट एक्सचेंज और ब्रिटेन में यूरोपियन क्लाइमेट एक्सचेंज में कार्बन क्रेडिट का कारोबार होता है। लेकिन बहुत जल्द ही इसका कारोबार भारत के मल्टी कमोडिटी एक्सचेंज यानी एमसीएक्स में शुरू होने का अनुमान है।

फिलहाल विश्व में 30 अरब डॉलर का कार्बन क्रेडिट का बाजार है। जिसका अगले कुछ सालों में 100 अरब डॉलर तक पहुंचने का अनुमान है। इतने बड़े बाजार में भारत की 30 परसेंट की भागीदारी हो सकती है।

2 साल पहले भारत में कार्बन क्रेडिट का लेन-देन शुरू हो चुका है। और इन दो सालों में घरेलू कंपनियों ने कार्बन क्रेडिट बेचकर 50 करोड़ डॉलर कमाए हैं। अभी हाल ही में जेएसडब्ल्यू स्टील के एक प्रोजेक्ट को 40 लाख का कार्बन क्रेडिट मिला है। जो कि भारत में अबतक का सबसे बड़ा कार्बन क्रेडिट है।

कुल मिलाकर कार्बन क्रेडिट की कहानी यही है कि हर देश के लिए कार्बन डाइऑक्साइड उत्सर्जन की एक सीमा तय कर दी गई है। अमेरिका और यूरोप के कई देश इस सीमा से ऊपर चल रहे हैं। इसलिए उन्हें कार्बन डाइऑक्साइड के उत्सर्जन में कटौती करनी है। नहीं तो फैक्ट्री चलाते रहने के लिए उन्हें हर साल कार्बन क्रेडिट खरीदने होंगे। और ये क्रेडिट भारत और चीन जैसे देशों से ही वो खरीदेंगे। क्योंकि भारत और चीन के लिए जो उत्सर्जन की सीमा तय की गई है। उससे ये दोनों देश काफी कम कार्बन डाइऑक्साइड का उत्सर्जन कर रहे हैं। भारत अगर अभी से सचेत तरीके से औद्योगिकीकरण की गाड़ी आगे बाढ़ाता है। और सही तकनीक का उपयोग करता है। तो हमेशा इस देश में कार्बन क्रेडिट की बौछार होती रहेंगी। और पर्यावरण को भी फायदा पहुंचता रहेगा।

हो सकता है कुछ लोगों को ये अटपटा सा लगे। और वो सोचें कि जब अमेरिका और यूरोप का विकास हो रहा था तो उनपर कोई लगाम नहीं था। और अब जब हमारी बारी आई तो उत्सर्जन पर लगाम लगाने के लिए कार्बन क्रेडिट का लोभ दिया जा रहा है।

लेकिन ऐसा नहीं है। हमेशा अपनी लगती से ही सीख लेना अच्छी बात नहीं है। आज हमें दूसरों की गलती से सीख लेनी चाहिए। हम आज वो सबकुछ कर रहे हैं और करेंगे जो विकसित देशों ने कभी किया था। लेकिन उनसे बेहतर रूप में। हम वैसी अच्छी तकनीक का उपयोग करेंगे जो प्रदूषण कम फैलाएगा। हम जंगलों को बचाएंगे। ताकि विकसित होने के बाद हम जीत का जश्न मना सकें। क्योंकि विकसित देशों की नकल और अंध औद्योगिकीकरण के बल पर अगर हम आगे निकल भी गए तो तपती धरती पर हमारे अगले जेनरेशन को सर छुपाने की जगह नहीं मिलेगी।

शुक्रवार, 21 सितंबर 2007

विदेशी गेहूं और सरकारी घुन

सरकार को साढ़े आठ रु गेहूं बेचने से तो अच्छा है गाय को खिलाना। एक लीटर भी दूध ज्यादा हुआ तो डबल मुनाफा!


जब हम पिज्जा,बर्गर खा ही रहे हैं। विदेशी कपड़े और जूते पहन ही रहे हैं। तो विदेशी गेहूं से क्यों है परहेज? ये सवाल करोड़ों की है। क्योंकि सरकार ये गेहूं,पिज्जा-बर्गर खाने वाले और ब्रांडेड कपड़े पहनने वालों के लिए नहीं गरीब लोगों के लिए खरीद रही है। कह रही है फूड सिक्योरिटी उसका धर्म है। लेकिन सरकार अगर गरीबों को विदेशी गेहूं खिलाना ही चाहती है तो क्यों हो रहा है इसका विरोध। विपक्षी दलों के साथ ही सरकार की सहयोगी वामपंथी पार्टियों ने क्यों फूक दिया है विदेशी गेहूं और सरकार की इस पहल के खिलाफ बिगुल।

विरोध के एक-दो नहीं,कई कारण हैं। पहले तो सरकार घटिया,जानवरों को खिलाने वाला, घुन लगा हुआ गेहूं खरीदने वाली थी। लेकिन तेज विरोध के बाद उस टेंडर को रद्द करना पड़ा। फिर सरकार ने अपना रुख महंगे गेहूं की ओर कर दिया। और अब 16 रुपए प्रति किलो पर गेहूं खरीदने के लिए अमादा है। जबकि देश में इसबार गेहूं की बम्पर पैदाबार हुई है। यानी करीब 7 करोड़ 50 लाख टन जो कि पिछले साल के मुकाबले 3.1 परसेंट ज्यादा है। और अगर CMIE यानी सेंटर फॉर मॉनिटरिंग इंडिया इकॉनोमी की मानें तो अगले कारोबारी साल में इस साल के मुकाबले 4.1 परसेंट ज्यादा पैदाबार की उम्मीद है।

कृषि मंत्री कहते हैं कि विदेशों में गेहूं की इसबार कम पैदाबार हुई है। और हमारे देश की तरह ही कई देश गेहूं के एक्सपोर्ट पर पाबंदी लगा चुके है या लगाने को तैयार हैं। लेकिन इससे डर कर क्या हमें MSP यानी मिनिमम सपोर्ट प्राइस(8.50 रु/किलो) से करीब 88 परसेंट ऊंची कीमत (16 रु/किलो) पर गेहूं खरीद लेना चाहिए?! बिल्कुल नहीं, क्योंकि जो करोड़ों रुपए हम विदेशी कंपनियों को दे रहे हैं जरूरत पड़ने पर उसकी एक चौथाई से भी कम रकम पर हम गेहूं की खरीदारी कर सकते हैं। बहरहाल इसकी जरूरत ही नहीं होगी। क्योंकि साढ़े सात करोड़ टन की उपज में से केवल 6 करोड़ 20 लाख टन गेहूं से ही देश का पेट भर जाएगा। और अगर नहीं भरेगा तो सरकार कुछ पैसे खर्च कर कालाबाजारी के लिए गोदाम में पड़ी गेहूं को निकलबा सकती है।

क्योंकि कालाबाजारी कराने में भी तो सरकार का ही हाथ होता है। अगर सरकार इसका ढ़िढोरा नहीं पीटे की इस साल कितने लाख टन गेहूं आयात करेगी, तो गेहूं की कालाबाजारी की जुर्रत कोई नहीं करेगा। सरकार को किसी भी इमर्जेंसी के लिए 40 लाख गेहूं बफर स्टॉक में रखना होता है। इसे चाहती तो सरकार भारतीय किसानों से खरीद सकती थी। लेकिन नहीं खरीद पायी। क्योंकि किसानों को पैसे देने में उसके हाथ कांपने लगे। और बड़ी मुश्किल से किसानों को 7.5 रुपए से कुछ आगे बढ़कर 8.5 रुपए प्रति किलो का भाव दे पायी। और इस भाव पर 1 करोड़ 10 लाख टन गेहूं खरीद सकी। या कह सकते हैं कि जानबूझकर खरीदी। ताकि बाद में इंपोर्ट के लिए कुछ स्पेस बना रहे।

बेटे,इसबार कुछ दिन और देशी गेहूं से ही काम चलाना होगा। लगता है सरकार विदेशी बाजारों में भाव और चढ़ने के इंतजार में है।

मैं ऐसा इसलिए कह रहा हूं क्योंकि प्राइवेट खरदारों को देश में मनभर गेहूं खरीदने में कोई दिक्कत नहीं आई। और वो भी एमएसपी के आसपास के भाव पर ही और अच्छी क्वालिटी की गेहूं।

राशन की दुकानों के जरिए गरीबों को देने के लिए भी सरकार के पास पर्याप्त गेहूं है। लेकिन इमर्जेंसी के लिए सरकार विदेशों से 5 लाख 11 हजार टन गेहूं 325 डॉलर प्रति टन के भाव से खरीद चुकी है। जबकि भारतीय किसानों को उसने 200 डॉलर प्रति टन का ही भाव दिए हैं। यही नहीं अंतरराष्ट्रीय बाजार में भाव और ऊपर जाने के बाद सरकार अब 8 लाख टन गेहूं 390 डॉलर प्रति टन के भाव से खरीदने वाली है। पर इससे कम में जब विदेशी बाजारों में गेहूं मिल रहे थे तो कई बार सरकार ने टेंडर कैंसिल कर दिए। पता नहीं शायद भाव बढ़ने का इंतजार कर रही होगी सरकार!

भ्रष्टाचार की घुन जब बोफोर्स और दूसरे आर्म्स डील में लग सकती है। तो गेहूं तो उसके लिए काफी उपयुक्त है। पिछले साल भी सरकार पर गेहूं के आयात में दलाली खाने का आरोप लगा था। जब एक पुराने मामले में ये बात सामने आई थी कि ऑस्ट्रेलिया से उसने 142.5 डॉलर प्रति टन के हिसाब से वही गेहूं खरीदा था जो मिश्र को 135 डॉलर प्रति टन को बेचा गया था। इस मामले में ऑस्ट्रेलियन कंपनी AWB ने किसी को 25 लाख डॉलर का दलाली दी थी।

शरद पवार महंगे गेहूं की खरीद के जितने भी तर्क दे रहे हैं। सभी बिना सिर पैर के हैं। शुक्र है कि उन्होंने ये नहीं कहा कि हमारा देश युवाओं का है और युवा जब रोटी खाते हैं तो गिनते नहीं!

सोमवार, 17 सितंबर 2007

रिको ऑटो में मुनाफे की सवारी



कंपनी - रिको ऑटो। सेक्टर - ऑटो पार्ट्स। एक साल का उच्चतम स्तर, 82 रुपए 90 पैसे। एक साल का न्यूतम स्तर 32 रुपए 45 पैसे। आज कीमत 36 रुपए 15 पैसे। यानी आपके पोर्टफोलियो के लिए द मोस्ट वांटेड स्टॉक। रिको ऑटो, देशी और विदेशी ऑटो कंपनियों को इंजन, ट्रांसमिशन, ब्रेकिंग और सस्पेंशन से जुड़े पार्ट्स सप्लाई करती है।

अगर इस कंपनी की ग्रोथ स्टोरी पर नजर डालें तो पता चलता है कि इसकी बिक्री केवल 6 वर्षों में पांच गुना से ज्यादा बढ़ी है। 1999 में बिक्री 3 करोड़ 40 लाख डॉलर थी जो कि 2005 में बढ़कर 15 करोड़ 70 लाख डॉलर पर पहुंच गई। वहीं मुनाफा 14 लाख डॉलर से बढ़कर 81 लाख डॉलर पर पहुंच गया।

रिको ऑटो का सबसे बड़ा कस्टमर हीरो होंडा है। जो कि देश में सबसे ज्यादा टू व्हीलर्स बेचती है। कंपनी कार और कमर्शियल वाहनों के लिए भी पार्ट्स सप्लाई करती है। अमेरिका और यूरोप में कंपनी की अच्छी पहुंच है।

एक समय था जब कंपनी की 60 परसेंट से ज्यादा की कमाई हीरो होंडा से होती थी। और जब हीरो होंडा कि बिक्री कम होती थी तो उसका असर कंपनी पर दिखने लगता था। इससे निजात पाने के लिए कंपनी ने अपना दरवाजा दूसरी कंपनियों के लिए भी खोल दी। आज टू व्हीलर सेग्मेंट में कंपनी की कस्टमर लिस्ट में बजाज, होंडा और सुजुकी का नाम भी शामिल है। यानी अब हीरो होंडा बिके या बजाज पल्सर फयादा रिको ऑटो को जरूर होगा।

पैसेंजर कार सेग्मेंट में कंपनी,मारुति सुजुकी,फोर्ड,जनरल मोटर्स,निसान,वोल्वो जगुआर, टाटा और लैंड रोवर को ऑटो पार्ट्स की सप्लाई करती है। वहीं कमर्शियल गाड़ी बनाने वाली कैटरपिलर्स,पर्किन्स जैसी कई बड़ी कंपनियों के नाम रिको ऑटो के कस्टमर लिस्ट में शामिल है।

इतना सब कुछ होते हुए भी कंपनी के शेयर पिछले कुछ दिनों में धाराशायी हो गए। जिसकी मुख्य वजह है रुपए का मजबूत होना। क्योंकि कंपनी के ज्यादातर ऑर्डर पुराने थे। साथ ही कंपनी पर ब्याज दर की भी मार पड़ी। ब्याज दर बढ़ने से गाड़ियों की बिक्री कम हुई। जिसका असर रिको ऑटो पर पड़ा।

लेकिन अब स्थिति बदल रही है। कंपनी अपना ध्यान यूरोपीय बाजारों पर बढ़ा रही है। ताकि डॉलर की मजबूती की मार से बचा जा सके। साथ ही देश में फेस्टिवल सीजन शुरू हो चुका है जिससे की गाड़ियों की बिक्री में तेजी आने का आनुमान है। कंपनी ने इसी साल दो ज्वाइंट वेंचर किए हैं। पहला ज्वांट वेंचर हाइड्रोलिक ब्रेक बनाने के लिए कांटिनेंटल ऑटोमोटिव सिस्टम के साथ तो दूसरा दोपहिया वाहनों के अल्यूमीनियम एलॉय व्हील बनाने के लिए जिनफेई चाइना के साथ।

रुपया अगर 2009 तक एक डॉलर के मुकाबले 32 रुपए पर भी पहुंच जाए। ऐसा कई अंतरराष्ट्रीय रिसर्च फर्म और बैंकों का मानना है। फिर भी रिको ऑटो को गम नहीं है। क्योंकि इस कंपनी में सस्ते ऑटो पार्ट्स बनाने की क्षमता है। और आने वाले दिनों में सस्ती कार (जो भी हो एक लाख या सवा लाख वाली) की जो आंधी देश में चलेगी। उसमें इस कंपनी की अहम भागीदारी होगी।


डिस्क्लेमर: रिको ऑटो के कुछ शेयर मैं भी होल्ड करता हूं।

रविवार, 2 सितंबर 2007

एनर्जेटिक है पावर ग्रिड कॉर्पोरेशन का IPO


भारत की सबसे बड़ी पावर ट्रांसमिशन कंपनी पॉवर ग्रिड कॉर्पोरेशन(पीजीसी) बाजार में उतरने को तैयार है। इसका आईपीओ 10 सितंबर को खुलेगा और 13 सितंबर को बंद होगा। निवेशकों के लिए प्राइमरी मार्केट में निवेश का ये सुनहरा अवसर है। क्योंकि भारतीय ट्रांसमिशन कारोबार में इस सरकारी कंपनी का एकाधिकार है। देश में बनाई जाने वाली कुल बिजली के एक तिहाई हिस्से का ट्रांसमिशन पीजीसी के जरिए ही होता है।

क्वालिटी के लिए आईएसओ 9001 से सम्मानित पावर ग्रिड कॉर्पोरेशन का दायरा 61875 हजार सर्किट किलोमीटर तक फैला है। जिसकी वजह से ये दुनिया के 6 सबसे बड़े पावर ट्रांसमिशन कंपनियों में शामिल है। एक क्षेत्र से दूसरे क्षेत्र एक राज्य से दूसरे राज्य तक बिजली पहुंचाने वाली ये कंपनी आईपीओ से जुटाई गई 2984 करोड़ रुपए को 15 नए ट्रांसमिशन प्रोजेक्ट में लगाएगी।

कंपनी अपनी करीब 14 परसेंट शेयरों के लिए आईपीओ ला रही है। आईपीओ में 10 रुपए की फेस वैल्यू वाले प्रति शेयर के लिए 44 से 52 रुपए का प्राइस बैंड तय किया है। जो कि इस मिनी रत्न कंपनी के लिए काफी लुभावना लग रहा है।

ट्रांसमिशन कारोबार के लिए कंपनी ने टाटा पावर, जेपी ग्रुप, टोरेंट पावर जैसे कई कंपनियों के साथ ज्वाइंट वेंचर भी किया है। या यों कहें कि इन छोटे-छोटे ज्वाइंट वेंचर के जरिए पीजीसी प्राइवेट कंपनियों को ट्रांसमिशन का कारोबार सिखा रही हैं।

विकासशील से विकसित होने के लिए विश्व में पावरफुल स्थान पाने के लिए देश में पावर का होना काफी जरूरी है। जिसका फिलहाल काफी आभाव है। और ये बात सरकार भी मानती है। तभी तो वामपंथी साथियों के तमाम उपद्रव और विरोधों के बावजूद भारत-अमेरिका परमाणु समझौता लागू कराने पर अड़ी है। अगर ये समझौता होता है तो इसकी बिजली साथ ही आने वाली तमाम अल्ट्रा मेगा पावर प्रोजेक्ट की बिजली को ढ़ोने का काम पावर ग्रिड कॉर्पोरेशन को ही मिलने वाला है। यानी पावर भले ही हवा से बने, परमाणु से बने या सूर्य की रोशनी से, उसको एक राज्य से दूसरे राज्य तक पहुंचाने का ज्यादातर जिम्मा इसी कंपनी को मिलेगा।

पीजीसी अपना विस्तार टेलीकॉम और कंसल्टेंसी क्षेत्र में बड़े पैमाने पर करने का मन बना चुकी है। फिलहाल इन दो क्षेत्रों का रेवेन्यू कंपनी के कुल रेवेन्यू का 2 और 2.6 परसेंट है। यानी भले ही ग्रिड फेल होने से कुछ समय के लिए बिजली चली जाए या ट्रांसमिशन और वितरण में कुल उत्पादन का करीब 40 परसेंट बिजली गुल हो जाए पीजीसी में निवेश से होने वाले फायदे की चमक हमेशा आपके लिए यादगार रहेगी।

रविवार, 19 अगस्त 2007

भारत के लिए कितना प्राइम है यूएस सबप्राइम ?


अमरीकी सबप्राइम क्राइसिस ने पूरी दुनिया के बाजारों को हिला कर रख दिया। भारतीय बाजार भी इसकी चपेट में आने से नहीं बच पाए। लेकिन भारतीय बाजार में अब तक जो गिराबट आई है, पैनिक सेलिंग उसके लिए मुख्य रूप से जिम्मेदार है। हालांकि इसको समझने के लिए इस क्राइसिस को समझना ज्यादा जरूरी है।

अमेरीकी सबप्राइम लोन को निंजा लोन भी कहते हैं। निंजा फाइटर जिसतरह से अपनी आखों पर पट्टी बांधकर भी अपने दुश्मनों को परास्त कर देते हैं। उसी तरह से अमरीका के सैकड़ों छोटी-बड़ी फाइनेंशियल कंपनियां जिसे सबप्राइम मोर्टगेज कहते हैं। अपनी आंखों पर पट्टी बांधकर लोन बांटती है। वो लोन देते समय ये नहीं देखती है कि लोन लेने वाले का बैकग्राउंड क्या है और वो पैसे चुका पाएंगे भी या नहीं। बस उसे लोन दे देती है। केवल एक शर्त होता है उंचा इंटेरेस्ट रेट। जो किसी भी बैंक के इंटेरेस्ट रेट से कई गुणा ज्यादा होता है।

लेकिन अमरीकी बाजार में हाउसिंग का बुलबुला फूटते ही यूएस सबप्राइम के होश उड़ गए। रातों- रात सैकड़ों यूएस सबप्राइम मोर्टगेज दीवालिया हो गए। क्योंकि निंजा लोन लेने वालों ने हाथ खड़े कर दिए और इंटेरेस्ट देना बंद कर दिया। यानी निंजा लोन देने वालों ने जब आंखों से पट्टी हटाई तो सामने खाई दिखाई देने लगी।

यूएस सबप्राइम क्राइसिस के सामने आते ही पूरी दुनिया के बाजारों पर जैसे बिजली गिर पड़ी। सभी बाजार हफ्तों तक लुढ़कते रहे। और आगे भी इसका असर दुनिया भर के बाजारों पर देखने को मिलेगा। लेकिन इसका सबसे ज्यादा असर अमरीकी और यूरोपीयन मार्केट पर देखने को मिल सकता है। जिसका फायादा भारत जैसे इमर्जिंग मार्केट को होगा।

ये तो दुनिया का रिवाज है जहां ज्यादा कमाई होती है वहां डेवलप कंट्री पहले पहुंचते हैं। ये कई रूप में पहुंचते हैं। डायरेक्ट बैंक के जरिए या किसी फाइनेंशियल संस्थान के रूप में या हेज फंड के रूप में या किसी और रूप में। यूएस सबप्राइम मार्केट में अंधाधुंध कमाई हो रही थी। मोटे इंटेरेस्ट रेट के चक्कर में फ्रांस, जर्मनी, जापान, ब्रिटेन के कई संस्थानों सहित दुनियाभर के हेज फंडों ने अपने-अपने पैसे लगा रखे थे। और जब सबप्राइम का बुलबुला फूटा तो इन संस्थानों ने पैसे की कमी दूर करने के लिए दुनियाभर के शेयर बाजारों से पैसे निकालने शुरू कर दिए। जिससे बाजारों में गिरावट शुरू हो गई। यूरोपियन सेंट्रल बैंक को तो अपने यहां पैसे की कमी को दूर करने के लिए एक दिन में 130 अरब डॉलर बाजार में छोड़ना पड़ा। ईसीबी ने अबतक एक दिन में इतने पैसे बाजार में पहले कभी नहीं छोड़े थे। 9/11 की घटना के बाद आयी मंदी में भी नहीं। फ्रांस की सबसे बड़ी बैंक बीएनपी पारिबा ने भी तीन इन्वेस्टमेंट फंड को करीब 4 अरब डॉलर निकालने से रोक दिया। यानी उनके एकाउंट फ्रीज कर दिए। अमेरिका ने भी बाजार में काफी पैसे इंजेक्ट किए। साथ ही अमरीकी सेंट्रल बैंक को लिक्विडिटी बनाए रखने के लिए ब्याज दरों में आधे परसेंट की कटौती करने के लिए बाध्य होना पड़ा।

भारतीय बाजार भी इस अंधर में कुछ हद तक हिला। लेकिन अपना फाउंडेशन कमजोर होने की वजह से नहीं बल्कि निगेटिव सेंटिमेंट और पैनिक सेलिंग की वजह से। पैनिक सेलिंग करने वालों में ज्यादातर ऊपर वाले और एकदम नीचे वाले हैं। यानी एफआईआई, हेज फंड और छोटे निवेशक। जो कि जल्द ही भारतीय बाजार में लौट आएंगे। क्योंकि इन एफआईआई और हेज फंडों ने जिनके पैसे गंवाए हैं। कुछ हदतक तो उसकी भरपाई भारत सहित दूसरे देशों के बाजारों से पैसे निकाल कर पूरी कर पाएंगे। लेकिन पूरी तरह उसकी भरपाई अब तभी कर पाएंगे जब भारतीय और कुछ इमर्जिंग बाजारों में वो लंबे अवधि के लिए बने रहेंगे। क्योंकि इन फंडों को जितना नुकसान हुआ है उसकी भरपाई अब केवल इमर्जिंग मार्केट ही कर सकता है ना कि कोई विकसित बाजार।

सोमवार, 2 जुलाई 2007

भारतीय सेज: कांटों या फूलों का ?


SEZ (सेज) यानी स्पेशल इकॉनोमिक ज़ोन की आंधी आजकल देश में चल रही है। केंद्र और राज्य सरकारें (चाहे किसी भी दल की हों) इस आंधी को चीनी चश्मे से देख रहे हैं। इसलिए उन्हें इसमें सुख, समृद्धि की ताकत दिख रही है। और शायद यही वजह है कि लेफ्ट भी इस आंधी में राइट का रूख पकड़ चुका है।


जबकि सच्चाई कुछ और है। दुनियाभर के करीब 3000 एसईजेड में शायद ही कोई ऐसा है जो चीन के कुल पांच में से किसी एक एसईजेड की बराबरी कर पाए। रूस सहित दुनिया के कई एसईजेड फ्लॉप सबित हुए हैं। क्योंकि चीन की हर बात की नकल नहीं की जा सकती। सस्ता लेबर, ज्यादा मेहनती लोग, कोस्टल एरिया, सरकार की मजबूत पकड़, सब्सिडी आदि चीन के एसईजेड के सफल होने के मूलमंत्र हैं।


अगर चीन के एसईजेड में एक आदमी हर घंटे 10 पंखे की वायरिंग करता है। और दिन का मेहनताना केवल 200 रु लेता है। तो इसमें उसके एसईजेड मॉडेल का क्या हाथ है ? ये तो वहां के लोगों की अच्छी प्रोडक्टिविटी है। एसईएज का फायदा तो केवल ये है कि वो पंखे कुछ ही क्षणों में बहुत कम ढ़ुलाई खर्च पर एक्सपोर्ट के लिए जहाज पर पहुंच जाता है। क्या ऐसा भारत में हो पाएगा। शायद नहीं, क्योंकि यहां का इंफ्रास्ट्रक्चर चीन से मीलों पीछे है। लोगों की उत्पादकता भी उतनी नहीं है। कच्चे माल महंगे हैं, बिजली महंगी है, ढ़ुलाई खर्च ज्यादा है। एसईजेड बनने के बाद भी इसमें ज्यादा बदलाव होता नहीं दिख रहा है। क्योंकि एसईजेड का बंदरबांट हो रहा है। उत्तरांचल, तमिलनाडु, पश्चिम बंगाल, गुड़गांव, पुणे में बनने वाले ऑटो फैक्ट्रियों को सरकार अगर किसी एक ही एसईजेड या किसी एक ही शहर के एसईजेड में ला पाती। तो इसका फायदा जरूर ऑटो कंपनियों और इससे जुड़े एसएमई सहित देश को होता। लेकिन दुर्भाग्य ये है कि सरकार की ऐसी कोई नीति नहीं है।


सरकार तो बस कुकुरमुत्ते की तरह एसईजेड खोलने में लगी है। अगर सरकार किसी एक सेक्टर का एसईजेड किसी एक एरिया में बनाती है तो उसके दूरगामी अच्छे परिणाम होंगे। और उसके बाद भले ही हमारे उत्पाद चीन से कीमतों में कुछ ज्यादा महंगे होंगे लेकिन क्वालिटी के मामले में हम भारी पड़ सकते हैं। लेकिन क्वालिटी का फायदा हमें तभी मिलेगा जब दोनों देशों के उत्पादों के बीच कीमतों की खाई कुछ कम हो।


एसईजेड का कानून जिसे हम एसईजेड एक्ट 2005 के नाम से जानते हैं। इसे 10 फरबरी 2006 को लागू किया गया। इसके तहत 22 जून 2007 तक कुल 127 एसईजेड को काम शुरू करने की फाइनल इजाजत दे दी गई । यानी बोर्ड ऑफ एप्रूवल ने इसे नॉटिफाइ कर दिया। इस कानून के तहत सबसे पहले देबी लेबोरेटरीज को करीब 105 हेक्टेयर पर फार्मास्युटिकल एसईजेड बनाने की इजाजत दी गई। इस कानून के तहत बने 63 एसईजेड में काम भी शुरू हो चुका है। जिसमें करीब साढ़े 18 हजार लोगों को रोजगार मिला है। इन 63 एसईजेड को बनाने में कंपनियों ने साढ़े 13 हजार करोड़ रु का निवेश किया है। इस कानून के बनने से पहले देश में 19 छोटे-छोटे एसईजेड काम कर रहे थे। जिसके एक्सपोर्ट ग्रोथ में 2003 से 2006 के बीच 15 परसेंट की गिरावट आई है। इसके बावजूद सरकार सामान्य ढर्रे पर चलने से बाज नहीं आना चाहती।


किसानों और विस्थापितों के पुनर्वास की समुचित व्यवस्था करने के लिए सरकार ने कुछ समय के लिए SEZ के बंदरबांट को रोक लिया था। और उस दौरान SEZ कानून में दूसरा सुधार कर डाला। यानी अब कोई भी एसईजेड 5 हजार हेक्टेयर से बड़ा नहीं होगा। और किसानों से अब जमीन कंपनियां खुद खरीदेंगी। लेकिन इसमें विस्थापितों के पुनर्वास की समुचित व्यवस्था की कोई झलक नहीं मिलती। अब अगर 25 एकड़ में एसईजेड बने या 5 हजार हेक्टेयर में लोग तो विस्थापित होंगे ही। क्योंकि सारे एसईजेड शहर के आसपास ही बन रहे हैं। विस्थापितों की समस्यायों को दूर किए बगैर ही सरकार फिर से नारा लगाने लगी है एसईजेड ले लो, एसईजेड ले लो!


सरकार ने कुल 234 एसईजेड के जरिए 3 लाख करोड़ रु के निवेश और 40 लाख नौकरियों का लक्ष्य रखा है। पर ये दूर का ढ़ोल ही लगता है। क्योंकि एफडीआई खींचने की महत्वाकांक्षा के बावजूद ज्यादातर एसईजेड में देश की कंपनियों का ही पैसा लग रहा है। और अबतक पास हुए कुल एसईएज का करीब 70 परसेंट आईटी और आईटीईएस से ही संबंधित है। इसकी एक वजह है। इनकी टैक्स हॉलिडे 2009 में खत्म हो रहे हैं। इसलिए ये कंपनियां 15 साल के दूसरे टैक्स हॉलिडे (एसईजेड पर) में शिफ्ट कर रही हैं। वित्त मंत्रालय और वाणिज्य मंत्रालय के बीच तनातनी की एक मुख्य वजह ये भी है। और हो भी क्यों नहीं वित्त मंत्रालय या यों कहें कि देश के राजस्व को एसईजेड में लगने वाले हर एक रुपए पर एक रुपए साठ पैसे का नुकसान हो रहा है। आरबीआई ने भी एसईजेड को रियल्टी से अलग दर्जा देने से मना कर दिया है।


अगर अब भी सरकार एसईजेड की पॉलिसी में आधारभूत बदलाव नहीं करती है। तो देश के सैकड़ों एकड़ उपजाऊ जमीन एसईजेड की भेंट चढ़ जाएंगे। बिहार जैसे बीमारू राज्य विकासशील भी नहीं बन पाएंगे। अमीर राज्य और अमीर होते जाएंगे। विस्थापितों की फौज जमा हो जाएगी। और एसईजेड कुछ लोगों और कंपनियों के लिए एक SPECIAL ENJOYMENT ZONE बनकर रह जाएगा।

मंगलवार, 19 जून 2007

एक साथ दो हवाई जहाज की सवारी !


एक कहावत है कि एक साथ दो नाव की सवारी नहीं करनी चाहिए। ऐसा एक- दो बार नहीं बल्कि कई बार हम सुनते आए हैं। जब भी कोई गलती करते हैं तब। लेकिन महान लोग ऐसा नहीं सोचते। अब शराब सम्राट विजय माल्या को ही लीजिए। इन्होंने तो नाव से भी आगे बढ़कर दो हवाई जहाज की सवारी एक साथ करने की ठान ली है। इनकी हिम्मत की तो दाद देनी होगी। क्योंकि इन्होंने जो दूसरा हवाई जहाज सवारी के लिए चुना है। वो पहले से बिल्कुल अलग है। या कह सकते हैं कि दूसरी दिशा में उड़ रहा है। पहला जहां एशो आराम और अमीरी की बुलंद ऊंचाई पर है। वहीं दूसरा, मध्य वर्गीय यात्रियों को बिना खाना-पानी पूछे उसके डेस्टिनेशन पर पहुंचाता है। पर एक समानता है जिसके आधार पर चाहें तो माल्या अपना बैलेंस बना सकते हैं। ये दोनों एयरलाइंस घाटे में उड़ रही हैं।


एक (किंगफिशर) में चढ़ते ही स्वर्ग जैसी अनुभूति होती है। छोटे- छोटे कपड़ों में अप्सराएं घूमती नजर आती हैं। जिनके चेहरे पर कई इंच लंबी प्लास्टिक की मुस्कान होती है। वहीं दूसरे (एयर डेक्कन) पर चढ़ने के बाद ऐसा लगता है कि हम किसी ट्रेन की बॉगी में आ गए हों। वही जाना पहचाना सा चेहरा। जमीन से जुड़े लोग । जैसे ट्रेन में मूंगफली बेचने वाले घूमते हैं। वैसे ही वहां एयर हॉस्टेस ट्रॉली घसीटते हुए कुरकुरे और बोतलबंद पानी बेचती नजर आती हैं। सीट पर बैठे ज्यादातर चेहरों पर चमक होती है। क्योंकि वो जीवन में पहली बार बादलों को इतने करीब से देख रहे होते हैं।


पर अब ये चमक शायद न देखने को मिले। क्योंकि एयर डेक्कन और किंगफिशर की शादी (मर्जर, एक्विजिशन) हो चुकी है। लेकिन ये कैसी शादी है। बिल्कुल असमान जोड़ी। ये लव मैरिज तो एकदम नहीं है। दोनों पक्षों में से किसी एक ने समझौता किया है। लोग तो यही कहते हैं परिस्थिति (कर्ज का बोझ, घाटा) ने एयर डेक्कन को इस शादी के लिए मजबूर किया है। लेकिन शादी कहीं और (एडीएजी के यहां) भी हो सकती थी ? लेकिन लेन- देन को लेकर शायद बात नहीं बन पाई। और केके यानी किंग और कैप्टन संबंधी बन गए। शायद ऐसा इसलिए भी हो गया कि दोनों दक्षिण भारत (बैंगलोर) के हैं, पड़ोसी हैं, दोनों के रीति- रिवाज एक जैसे हैं।


शायद वर पक्ष (किंग) बहुत पहले से कन्या पक्ष (कैप्टन) के यहां संबंध बनाना चाहता था। और इसीलिए कन्या (एयर डेक्कन) के 2004 में पैदा होने के एक साल बाद जब वर (किंगफिशर) पैदा हुआ। तो किंग ने अपने बच्चे को वैसी ही थाली में खाना खिलाया जिसमें कन्या खाया करती थी। भले ही थाली में रोटी के बदले पकवान पड़ोसे जाते रहे हों। लेकिन थाली वैसा ही रखा (एयरबस फ्लीट, इंजन ब्रेक्स, एटीआर, एविओनिक्स, रोटेबल्स, लुफ्तहांसा टेक्निक्स से मेंटेनेंस) जैसा कन्या के पास था। ताकि बाद में दोनों एक साथ एक ही थाली (हवाई रूट) से काम चला सकें। और थाली के रख रखाव में भी अलग से खर्च ना करना पड़े।


इस शादी के सहारे किंग निकल पड़े हैं दो हवाई जहाज के सवारी पर। लेकिन क्या वो बैलेंस बना पाएंगे। क्या ये शादी एयर फ्रांस और नीदरलैंड के केएलएम की शादी की तरह सफल हो पाएगी। क्योंकि ये दुनिया की सबसे से ज्यादा कमाई करने वाली एयरलाइंस बन चुकी है।


अगर एयर डेक्कन और किंगफिशर मिलकर घाटे से भी जल्द उबर जाएं तो बड़ी बात होगी। क्योंकि दोनों का वर्क कल्चर अलग है। एयर डेक्कन का केबिन क्रू, एयर होस्टेस और स्टाफ सरकारी बसों और लोकल ट्रेनों से सफर करते हैं। तो पायलट होटल की बजाए गेस्ट हाऊसों में रुकते हैं। वहीं किंगफिशर अपने स्टाफ को वो सारी सुविधाएं मुहैया कराती हैं। जो एक इंटरनेशनल एयरलाइंस देती हैं। यानी दोनों का कल्चर मिलने पर या तो एयर डेक्कन का स्तर ऊपर उठेगा। जिससे किराया बढ़ेगा (वैसे भी माल्या को लो कॉस्ट पर भरोसा नहीं है)। या किंगफिशर का स्तर नीचे आएगा। जिससे जेट एयरवेज को फायदा होगा। हालांकि ऐसा नहीं लगता की कभी किंग दूसरे ऑप्शन पर विचार भी करेंगे। जो भी हो ये दोनों ही ऑप्शन नए लोगों को हवाई सफर के लिए तैयार करने के लिए नाकाफी है।


यानी किंग को मुनाफा कमाने के लिए कोई तीसरा तरीका अपनाना होगा। और ये तीसरा तरीका लो कॉस्ट को बढ़ावा देना हो सकता है। तभी ज्यादा से ज्यादा लोग हवाई सफर कर पाएंगे। और तभी कंपनी टर्न अराउंड जल्दी से कर पाएगी। नहीं तो महंगे एटीएफ, और रूला देने वाले कंजेशन चार्ज सहित खाली उड़ानों के लिए कंपनी को बाध्य होना पड़ेगा। जिससे ना तो कंपनी का भला होगा और ना ही लोगों का।


जेट-सहारा, किंगफिशर-एयर डेक्कन, इंडियन- एयर इंडिया की हवाई शादी के बाद गो एयर, स्पाइस जेट जैसे लो कॉस्ट एयरलाइंस में अफरा-तफरी मची है। जल्द ही ये भी किसी एयरलाइंस से मिलने को आतुर दिख रहे हैं। ऐसे में सरकार को कुछ पहल करने की जरूरत है। सरकारी महकमे में घरेलू एयरलाइंस की हिस्सेदारी विदेशी एयरलाइंसों के हाथों बेचे जाने की इजाजत दिए जाने की चर्चा गरम है। हालांकि विमानन मंत्रालय इसके पक्ष में फिलहाल नहीं है। लेकिन वित्त मंत्रालय ऐसा चाहती है।


जो भी हो इतना तो तय है कि जबतक हवा में कंपीटिशन है। तभी तक लोगों को सस्ता सफर का मजा मिल सकता है। सस्ता की चाहत में ही लाखों लोग एयरपोर्ट की ओर रुख करेंगे और जब लोग आएंगे तभी नए नए एयरपोर्ट और डेस्टिनेशन आस्तित्व में आ पाएंगे। और ये सेक्टर देश की ग्रोथ के साथ ताल में ताल मिलाकर आगे बढ़ पाएगा।


यानी कंपीटिशन बनाए रखने के लिए सरकार को एविएशन पॉलिसी पर गंभीर विचार करने की जरूरत है। टैक्सों के जरिए अपना खजाना भरने के साथ ही सरकार को लोगों और घाटे में लहूलुहान हो रही कंपनियों का भी ख्याल रखना होगा।

गुरुवार, 14 जून 2007

टिनप्लेट में मीठा निवेश

टिनप्लेट टाटा की कंपनी है। करीब 85 साल पुरानी इस कंपनी का भारतीय टिनप्लेट बाजार पर एकाधिकार है। कंपनी का मार्केट शेयर इस समय 40 परसेंट के करीब है। कंपनी टिन के डिब्बे, केन(जिसमें शराब, कोल्ड ड्रिंक्स, तेल आदि मिलते हैं), अनाज और दूसरे खाने के सामान रखने के डिब्बे सहित पैकेजिंग क्षेत्र में उपयोग में आने वाली कई तरह के बड़े-छोटे बॉक्स बनाती है।

कंपनी भले ही पुरानी है। लेकिन इसका काम करने का तरीब अब बिल्कुल बदल रहा है। ये कंपनियों के डिमांड पर उत्पाद बनाने के साथ ही अब कंपनियों को अच्छी और नए डिजाइन की पैकेजिंग के लिए प्रोत्साहित भी करती है। यानी कि मार्केट शेयर बढ़ाने का नया तरीका जो कि इस क्षेत्र की दूसरी कंपनियों से इसे आने वाले दिनों में और आगे बढ़ा देगा। इसके कॉलगेट और अदानी जैसे कई बड़े ग्राहक हैं।

रिटेल का युग शुरू हो रहा है। बिड़ला, गोदरेज, रिलायंस, वॉलमार्ट, गोयंका जैसे कई बड़े खिलाड़ी इससे जुड़ चुके हैं। और आने वाले दिनों में कई बड़े मल्टीनेशनल रिटेलर भारत में अपना कारोबार करने के लिए कतार में खड़े हैं। हजारों करोड़ रुपए के रिटेल बिजनेस का फायदा टिनप्लेट को बड़े पैमाने पर होगा। क्योंकि बिग बाजार, मेगा मॉल, सुपर मॉल में समानों की पैकेजिंग पर विशेष ध्यान दिया जाता है। और शायद यही वजह है कि टिनप्लेट ने खुद को ट्रांसफॉर्म करने का इरादा बना लिया है। यानी अब कंपनी केवल 'टिनप्लेट मैन्युफैक्चरर' ही नहीं होगी दुनियां इसे 'मेटल पैकेजिंग सॉल्यूशन प्रोवाइडर' के रुप में जानेगी।

फिलहाल कंपनी अपने उत्पादन का करीब 25 परसेंट हिस्सा एक्सपोर्ट करती है। कंपनी का ज्यादातर एक्सपोर्ट दक्षिण पूर्व एशिया, मिडिल ईस्ट और यूरोप के कुछ अमीर देशों को होता है। आने वाले दिनों में कंपनी का इरादा कुछ और देशों में एक्सपोर्ट करने का है। साथ ही कंपनी ने एशिया के टिनप्लेट बिजनेस का एक बड़ा खिलाड़ी बनने का लक्ष्य रखा है।

भारतीय पैकेजिंग इंडस्ट्री में टिनप्लेट के लिए असीम संभावनाएं हैं। क्योंकि इस समय करीब 50 हजार करोड़ रुपए के कुल पैकेजिंग इंडस्ट्री में टिनप्लेट पैकेजिंग की हिस्सेदारी करीब 6 परसेंट ही है। लेकिन इसके 10 परसेंट तक पहुंचने का अनुमान है। साथ ही घरेलू पैकेजिंग इंडस्ट्री सलाना करीब 20 परसेंट की दर से बढ़ रही है। और आने वाले दिनों में इसमें और तेजी आने की उम्मीद है।

इंडियन प्रॉसेसिंग इंडस्ट्री का एक्सपोर्ट साल दर साल 200 परसेंट से ज्यादा की रफ्तार से बढ़ रहा है। 2002-2003 में इस सेक्टर से 17600 करोड़ रुपए का एक्सपोर्ट हुआ। जो कि 2003-2004 में बढ़कर 53000 करोड़ रुपए पर पहुंच गया है। प्रॉसेसिंग इंडस्ट्री के बढ़ते एक्सपोर्ट में पैकेजिंग का फायदा टिनप्लेट को मिलेगा।

दुनियाभर में फूड पैकेजिंग इंडस्ट्री का करीब 87 परसेंट पैकेजिंग टिनप्लेट में ही की जाती है। क्योंकि इसमें खाने के स्वाद को ज्यादा समय तक बचाए रखने की शक्ति होती है। साथ ही इसमें रखे गेहूं, चावल, दाल के महत्वपूर्ण तत्व सालों तक बचे रहते हैं। लेकिन भारत के फूड पैकेजिंग इंडस्ट्री में टिनप्लेट की हिस्सेदारी काफी कम है। पर हां, बड़े-बड़े रिटेलरों के आने से इसकी ज्यादा से ज्यादा यूज होने की संभावना बनी है।

कंपनी ने अपने जमशेदपुर स्थित प्लांट में 210 करोड़ रुपए का निवेश किया है। ताकि उत्पादन क्षमता को 2008 तक बढ़ाकर 3 लाख 80 हजार टन किया जा सके। टिनप्लेट का इको फ्रेंडली होना भी इसका एक प्लस प्वाइंट है। जैसे जैसे लोगों में प्रर्यावरण के बारे में जागरूकता बढ़ेगी। प्लास्टिक का यूज कम होने लगेगा। और उसका जगह लेने लगेगा टिनप्लेट।

यानी अगर आप सचमुच स्टील जैसा मजबूत निवेश करना चाहते हैं। तो टिनप्लेट एक बेहतर ऑप्शन है। क्योंकि इस कंपनी से ज्यादा से ज्यादा रिटर्न हासिल किया जा सकता है।

डिस्क्लेमर: मेरे पास टिनप्लेट के कुछ शेयर हैं

मंगलवार, 12 जून 2007

एयर डेक्कन का आम आदमी भटक गया रास्ता !


किंगफिशर ने एयर डेक्कन में 26 परसेंट हिस्सेदारी खरीदी। अब किंगफिशर के किंग यानी विजय माल्या के संगत में आ गया है एयर डेक्कन का ब्रांड एम्बेस्डर यानी आम आदमी। अब क्या होगा देश के लाखों करोड़ों आम आदमी का। कौन उसके सपने को सच करेगा। कौन उसे हवा की सैर कराएगा ?!!!!

रविवार, 10 जून 2007

बाप बड़ा ना भैया सबसे बड़ा रुपैया

महंगाई कम हो रही है और रुपया फिर से कमजोर हो रहा है। ये किसी जादू से कम नहीं है। क्योंकि अबतक ऐसा लग रहा था कि आरबीआई को फिर से पांच- दस और बीस पैसे के सिक्के जारी करने पड़ेंगे। क्योंकि लगातार कई हफ्तों से महंगाई दर कम हो रही थी और रुपया लगातार मजबूत हो रहा था। लेकिन शायद अब ऐसा न करना पड़े क्योंकि रुपए में गिरावट शुरू हो चुकी है। साथ ही महंगाई के मामले में सरकार ने सिक्सर लगा दी है। क्योंकि महंगाई दर लगातार छे हफ्तों से गिरते-गिरते 4.85 पर आ गई है। जो कि आरबीआई की लक्ष्य से केवल 0.35 परसेंट ही आगे है। और जनवरी से 8 परसेंट मजबूत हो चुके रुपए में केवल एक दिन(हफ्ते के आखिरी कारोबारी दिन) में 43 पैसे की भारी गिरावट आ गयी। और ये डॉलर के मुकाबले गिरकर 41.13 पर पहुंच गया है। जिससे निर्यातकों ने राहत की सांस ली है। लेकिन ये राहत लंबे समय के लिए नहीं लग रही है।

क्योंकि रुपए की इस गिरावट में सरकार की कोशिशों से ज्यादा बाजार में गिरावट का हाथ है। क्योंकि इस हफ्ते विदेशी संस्थागत निवेशकों(एफआईआई) ने जमकर बिकवाली की है। और भारी तादाद में डॉलर लेकर अपने अपने देश चले गए हैं। साथ ही महंगे होते कच्चे तेल ने भी रुपए को राहत पहुंचाई है। क्योंकि फिर से करीब 67 डॉलर प्रति बैरल पर पहुंच चुके कच्चे तेल की कीमतों को देखते हुए। तेल कंपनियों ने अपना डॉलर का खजाना बढ़ाने के लिए बड़े पैमाने पर डॉलर की खरीदारी की है। यानी सिस्टम में यकायक बड़े पैमाने पर डॉलर की मांग बढ़ी जिससे रुपया कमजोर हो गया।


ऐसा नहीं है कि आरबीआई हाथ पर हाथ धरे बैठी रही। पूरे हफ्ते आरबीआई रुपए को राहत देने के लिए बाजार से डॉलर बटोरती रही। लेकिन हफ्ते के आखिरी कारोबारी दिन डॉलर की अचानक मांग बढ़ने से आरबीआई को डॉलर बाजार में छोड़ना पड़ा। ताकि रुपए में एक हद से ज्यादा उतार-चढ़ाव एक दिन में न हो पाए। फिर भी पूरे हफ्ते डॉलर की अंधाधुंध खरीदारी की वजह से केवल इसी हफ्ते देश के विदेशी मुद्रा भंडार में 3.5 अरब डॉलर और जुड़ गया। जो कि पिछले सात हफ्तों में सबसे अधिक है। और ये बढ़कर 208 अरब डॉलर से ज्यादा हो गया है। आरबीआई के आंकड़े बताते हैं कि पिछले सात हफ्तों से विदेशी मुंद्रा भंडार में 1 अरब डॉलर से भी कम रकम जुड़ते रहे हैं।

हालांकि आरबीआई के लिए लिक्विडिटी को कंट्रोल में रखते हुए रुपए पर लगाम लगाना काफी कठिन काम है। क्योंकि लिक्विडिटी की मार से बचने के लिए ही ज्यादातर बैंक डॉलर बेचते हैं। जिससे बाजार में डॉलर की बाढ़ आ जाती है और रुपया भाव खाने(मजबूत होने) लगता है। जिसके बाद आरबीआई हरकत में आता है लेकिन एक सीमा तक ही डॉलर की खरीदारी कर पाता है। क्योंकि ज्यादा खरीदारी करने से बाजार में फिर रुपए की बाढ़ आ जाएगी। और लिक्विडिटी पर से आरबीआई का कंट्रोल खत्म होने लगेगा। जिससे महंगाई बढ़ने लगेगी। और महंगाई ने केंद्र की यूपीए सरकार को कई राज्यों के चुनाव में धूल चटवाई है। इसलिए सरकार की अब पहली प्राथमिकता महंगाई बन गई है। उसके बाद ही रुपए की मजबूती का नंबर आता है।


एक्सपोर्टरों की समस्या का फिलहाल कोई स्थाई निदान नहीं निकल पाया है। ऐसा अनुमान लगाया जा रहा है कि आने वाले दिनों में रुपया और मजबूत होगा। और पहले से ही रो रहे हैंडीक्राफ्ट, टेक्सटाइल, लेदर, जेम्स और ज्वेलरी, कैमिकल, आईटी उद्योगों को और परेशानी का सामना करना पड़ सकता है। क्योंकि इनकी ज्यादातर कमाई डॉलर में होती है। और डॉलर को जब ये रुपया में बदलते हैं तो इन्हें उतना रुपया नहीं मिल पाता जितना छे महीने पहले मिलता था। फिर भी इनमें से जेम्स एंड ज्वेलरी जैसे उन उद्योगों को ज्यादा परेशानी नहीं है जो कच्चा माल का आयात करते हैं। क्योंकि रुपया मजबूत होने से आयात सस्ता हो जाता है। लेकिन जो यहीं कच्चा माल खरीदते हैं उन्हें ज्यादा नुकसान उठाना पड़ता है। आईटी कंपनियों में भी आलम कुछ ऐसा ही है लोगों की सैलरी आसमान छू चुकी है। साथ ही एट्रिशन से बचने के लिए उनका अप्रेजल भी सही समय पर करना होता है। जिससे कंपनी का मार्जिन कम हो रहा है। रुपए की कीमत के अनुसार एक्सपोर्टर अपनी कीमत बढ़ा नहीं पाते हैं। क्योंकि विदेशी बाजार में तगड़ा कंपीटीशन है। अगर एक्सपोर्टर अपने सामान की कीमत बढ़ाएंगे तो खरीदार बांग्लादेश, चीन, फीलिपींस जैसे देशों के सस्ते सामान की ओर रुख कर लेंगे।


एक्सपोर्टरों के हितों को सरकार किस तरह देख रही है। ये अभी तय नहीं हो पाया है। क्योंकि वाणिज्य मंत्री कमलनाथ कभी कहते हैं एक्सपोर्टरों को हो रहे नुकसान के लिए उनका कंपीटीटिव नहीं होना जिम्मेदार है। और उन्हें रुपए की मजबूती का ख्याल छोड़कर आज के बाजार में टिके रहने के लिए कंपीटीटिव होना होगा। जबकि वाणिज्य राज्य मंत्री जयराम रमेश एक्सपोर्टरों को हो रहे नुकसान से बचाने के लिए करों में कुछ छूट की बात करते हैं।



सबसे बड़ी समस्या शेयर बाजार के सामने आ सकती है। क्योंकि मार्क फेबर जैसे बड़े निवेश गुरूओं की राय यही है कि भारतीय बाजार ओवर वैल्यूड है। साथ ही चीनी बाजार में आए भारी करेक्शन से अभी सेंटिमेंट भी खराब है। ऐसे में पहले से ही शेयर बाजार में मोटी कमाई पर बैठे एफआईआई को अगर मजबूत रुपए का साथ मिल जाता है। तो उनके लिए सोने पे सुहागा होगा। क्योंकि बाजार से निकलने पर उन्हें एक डॉलर अपने घर ले जाने के लिए पहले 45-47 रुपए खर्चने पड़ते थे। जो कि घटकर 40-41 रु पर आ गया है। अगर ये और कम होता है तो आंधी की तरह ज्यादातर एफआईआई इस बाजार से बाहर हो जाएंगे। और तब शेयर बाजार में ऐतिहासिक गिरावट को कोई नहीं रोक पाएगा।

सोमवार, 4 जून 2007

रिलायंस कम्युनिकेशन में काफी दम है


रिलायंस कम्युनिकेशन की रफ्तार रोके नहीं रुक रही है। आखिर रुके भी क्यों, दुनियाभर में सब से ज्यादा तेजी से भारत में टेलीकॉम बिजनेस बढ़ रहा है। जिस तरह रिलायंस इंडस्ट्रीज पर मुकेश अंबानी के साथ ही देश को नाज है। उसी तरह रिलायंस कम्युनिकेशन अनिल अंबानी का कमाऊ पूत है। और अगर देश की बात करें तो रिलायंस इंडस्ट्रीज से ज्यादा लोग रिलायंस कम्युनिकेशन को जानते हैं। क्योंकि इसकी पहुंच गांवों-गांवों तक हो चुकी है। और इसी ने सब्जी बेचने वालों से लेकर धोबी, नाई, रिक्शा पुलर जैसे साधारण लोगों के मोबाइल पर बात करने के सपने को सबसे पहले साकार किया है। गांवों में तो अब लोग रिलायंस का मतलब ही फोन समझते हैं।

हच एस्सार को खरीदने में नाकाम होने के बाद ऐसा लगा था कि इसकी रफ्तार धीमी होगी। पर ऐसा नहीं हुआ। हालांकि उस डील को कर लेने के बाद कंपनी एक झटके में अपने जीएसएम सर्विस में छा जाती। जो कि नहीं हो सका। पर कंपनी ने हार नहीं मानी। अपने नेटवर्क में ज्यादा से ज्यादा कंज्यूमरों को जोरने के लिए कंपनी एग्रेसिव रुख अख्तियार कर चुकी है। देश के कुल 17 करोड़ मोबाइल धारकों में से 3 करोड़ लोग रिलायंस के नेटवर्क से जुड़े हैं। हाल ही में कंपनी ने रोमिंग दरों को घटाकर सनसनी फैला दी। क्योंकि कंपनी ने ये कदम सरकारी कंपनी बीएसएनएल- एमटीएनएल से पहले उठा ली थी। उसके बाद जब बीएसएनएल- एमटीएनएल ने रोमिंग दरों में कटौती का ऐलान किया तो। तो रिलायंस कम्युनिकेशन ने फिर से और कटौती का ऐलान कर दिया।

हालांकि देश की सबसे बड़ी प्राइवेट टेलीकॉम कंपनी एयरटेल ने फिलहाल किसी कटौती का ऐलान नहीं किया है। लेकिन ऐसा अनुमान है कि अगले कुछ ही हफ्तों में वो रोमिंग दरों में कटौती का ऐलान करने वाली है।

रोमिंग दरों में ट्राई के फीस कम करने के बाद रिलायंस ने रोमिंग दरों में कटौती करने जो सिलसिला शुरू किया है। उसे देखकर निवेशक डरे हुए हैं। और डरें भी क्यों नहीं। कंपनी की कमाई का करीब 40 परसेंट रोमिंग से ही जो आता है। आगे बढ़कर कटौती शुरू करने की नीति को हमें एक अच्छी नीति ही मानना चाहिए। क्योंकि बीएसएनएल के ऐलान के बाद आज न कल उसे ये करना ही पड़ता। तो फिर पहले क्यों नहीं। इसका फायदा कंपनी को हुआ है और हो रहा है। इसके कनेक्शन लेने वालों की रफ्तार बढ़ गई है। और जबतक एयरटेल और हच रोमिंग दरों में कटौती करने से बचते रहेंगे। इसकी तेज रफ्तार जारी रहेगी। साथ ही कंपनी लगातार सस्ते मोबाइल हैंड सेट लांच कर रही है। जिसके चलते भी इस नेटवर्क से ज्यादा से ज्यादा लोग जुड़ रहे हैं। और जब तक वोडाफोन सबसे सस्ता फोन लांच करेगा तबतक रिलायंस नेटवर्क की झोली में लाखों ग्राहक आ चुके होंगे।

टेलीकॉम बिजनेस में कमाई की पहली सीढ़ी कनेक्शन ही होती है। अगर घाटे में भी किसी कंपनी ने कनेक्शन का जाल फैला दिया तो आने वाले दिनों में मुनाफा खुद ब खुद होने लगता हैं। क्योंकि नंबरों का एट्रिशन (एक सर्विस प्रोवाइडर से दूसरे सर्विस प्रोवाइडर में जाना) कुछ दिनों के बाद कठिन हो जाता है। विदेशों में तो इस तरह के एट्रिशन के लिए टेलिकॉम प्रोवाइडर महंगे-महंगे प्रलोभन देते हैं। पर हां अपने सब्सक्राइबर कर बचाए रखने के लिए भी कंपनियां अपने वफादार कंज्यूमर को गिफ्ट बांटती रहती हैं। लेकिन ये सिलसिला भारत में शुरू होने में अभी काफी समय है। क्योंकि ये तब शुरू होता है जब देश में हर किसी के हाथ में मोबाइल हो।

देश की दूसरी सबसे बड़ी प्राइवेट टेलीकॉम कंपनी का दर्जा होने के बावजूद इंटिग्रेटेड टेलीकॉम सर्विस के मामले में रिलायंस टेली देश की सबसे बड़ी कंपनी है। इंटिग्रेटेड यानी की जीएसएम, सीडीएमए, ब्रॉडबैंड, इंटरनेशनल अंडर सी केबल नेटवर्क जैसे सर्विस देने वाली एक ही कंपनी। आने वाले दिनों अगर ये कंपनी जीएसएम मामले में पीछे रह भी जाती है तो दूसरी चीजों में इसे पकड़ने वाला कम से कम भारत कोई नहीं होगा। और खासकर ब्रॉडबैंड में तो काफी बेहतर स्कोप दिख रहे हैं। अगले कुछ दिनों में रिलायंस के जीएसएम के भिवष्य पर फैसला हो जाएगा। क्योंकि सरकार इसके लिए स्पेक्ट्रम रिलीज करने वाली है। जीएसएम में रिलायंस कम्युनिकेशन की रफ्तार क्या होगी ये बहुत हद तक उसे मिलने वाले स्पैक्ट्रम पर निर्भर करेगा। और स्पैक्ट्रम की कीमत पर भी। क्योंकि सरकार स्पैक्ट्रम के लिए विदेशों से भी टेंडर मंगाना चाहती है। यानी बड़ी विदेशी कंपनियां अगर टेंडर नहीं भी ले पाती हैं तो कम से कम स्पैक्ट्रम की कीमत को तो जरूर चढ़ा देंगी।

कुल मिलाकर निवेश की नजरिए से ये एक बहुत अच्छा स्टॉक है। क्योंकि आने वाले दिनों में रिलायंस कम्युनिकेशन से दो और कंपनियां निकलती दिख रही है। एक तो होगा इस इंटरनेशनल अंडर सी केबल नेटवर्क वाली कंपनी फ्लैग टेलीकॉम। जो कि इसकी 100 परसेंट सब्सिडियरी है। और हाल ही में एक ब्रिटिश नेटवर्क कंपनी के साथ किए समझौते के बाद इसकी पहुंच दुनिया के 6 महादेशों तक हो गई है। यानी कि ये रिलायंस कम्युनिकेशन को कमाई कराने वाला बेटा है। जिसकी लिस्टिंग जल्द ही लंदन स्टॉक एक्सचेंज में होने वाली है। और रिलायंस कम्युनिकेशन का दूसरा वाल छोटा बेटा है रिलायंस टेली टावर इंफ्रास्ट्रक्चर। कंपनी इसकी 26 परसेंट हिस्सेदारी किसी विदेशी कंपनी के हाथों बेचने की तैयारी में है। फिलहाल कंपनी के पास 14000 टॉवर हैं और कंपनी की योजना 20000 और टॉवर बनाने की है। आने वाले दिनों में ये एक अगल कंपनी की तौर पर बाजार में लिस्ट हो सकती है। और इन दोनों कंपनियों का फायादा रिलायंस कम्युनिकेशन के शेयर धारकों को जरूर होगा।

रविवार, 3 जून 2007

मोनोपोली और कार्टलाइजेशन बनाम सरकार

भारतीय इकॉनोमी के खुलने से पहले यानी 1991 के पहले देश में मोनोपोली का जोर हुआ करता था। तब हर क्षेत्रों में गिनी चुनी कंपनियां थीं। जो अपनी मनमानी करती थीं। जो मर्जी होता था वो कीमत लोगों से वसूला करती थीं। इसका एक सीधा सा उदाहरण है बिड़ला का हिंदुस्तान मोटर्स जो कि एम्बैस्डर कार बनाती है। ये कंपनी इस साल अपनी 50 वीं वर्षगांठ मना रही है यानी गोल्डेन जुबली। लेकिन आज के दिन कंपनी के पास केवल गोल्डन यादें ही बची रह गई हैं। क्योंकि आज कार बाजार में इसका मार्केट शेयर नाम मात्र का ही बच गया है। आज हर साल करीब 14 लाख कारें बिकती हैं जिसमें एम्बैस्डर खरीदने वालों की संख्यां होती है करीब 15 हजार। लेकिन वो भी एक समय था जब हिंदुस्तान मोटर्स की मोनोपोली का जोर करीब तीन दशकों तक लोगों की सरों पर तांडव करता रहा। लोगों से मनमानी कीमत वसूलता रहा। यही नहीं मनमानी कीमत देने के बावजूद लोगों को एम्बैस्डर की सवारी के लिए महीनों इंतजार करना पड़ता था। वहीं रसूख वाले लोगों और लालफीताशाही वालों को सवारी का मौका पहले मिल जाया करता था। तब भारतीय कार बाजार के 70 परसेंट हिस्से पर इसका कब्जा हुआ करता था। 1980 के दशक में इंदिरा गांधी के पुत्र संजय गांधी ने देश में मारूति की नींब रखी। जिसके बाद मारूति की बहाव में एम्बैस्डर बह गया। और छोटी कार यानी पीपुल्स कार बनाने वाली मारूति देश में कार बनाने वाली नंबर वन कंपनी बन गई। आज देश में छोटी बड़ी कार खरीदने के कई ऑप्शन मौजूद हैं। लेकिन देश की इकॉनोमी के ओपन होने के बाद आज एक दूसरी तरह की समस्या देश के सामने सुरसा की भांति मुंह बाए खड़ी है। इस समस्या का नाम है कार्टलाइजेशन जिसने सरकार की नींद उड़ा रखी है। इससे बचने के लिए प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह को कार्टलाइजेशन से परहेज करने की अपील करनी पड़ी। आखिर क्या है कार्टलाइजेशन ? ये मोनोपोली का ही एक्सटेंशन है । जिसमें किसी क्षेत्र की सारी कंपनियां मिलकर कीमतों को जानबूझकर चढ़ाए रखती है। उन्हें ये चिंता नहीं होती की इससे देश की ग्रोथ पर क्या असर पड़ रहा है या लोगों के बजट कितने लहूलुहान हो रहे हैं। कार्टलाइजेशन का एक सीधा सा उदाहरण देखने को मिला सीमेंट इंडस्ट्री में। जहां कंपनियों ने आपस में मिलकर भाव को सातवें आसमान पर चढ़ा दिया। सरकार ने इसपर लगाम लगाने के तमाम कोशिश की। सीमेंट के उत्पादन पर दोहरा उत्पाद कर लागा दिए। इंपोर्ट ड्यूटी खत्म कर दी। फिर भी कंपनियों ने भाव नीचे नहीं किए। तो सरकार ने महंगे सीमेंट पर उत्पाद कर में कुछ छूट के साथ एडवैल्यूरेम ड्यूटी लगा दी। यानी टैक्स की अनंत सीमा। अब कंपनियां जितना ज्यादा भाव पर सीमेंट बेचेंगी उन्हें उसी अनुपात में टैक्स देना होगा। हालांकि इससे भी कीमतों पर पूरी तरह से लगाम लगा पाना संभव नहीं दिख रहा है। प्राइवेटाइजेशन के इस युग में अब प्राइवेटाइजेशन पर सवाल उठने लगा है। क्योंकि यही देखा जा रहा है जिन क्षेत्रों में सरकारी कंपनियों की पकड़ ढ़ीली है वहां या तो मोनोपोली हावी हो जाता है या कार्टलाइजेशन। जबकि जिन क्षेत्रों में सरकार के पैर जमे हैं वहां इसतरह की समस्या नहीं देखने को मिलती है। इसका उदाहरण है पेट्रोलियम और टेलीकॉम सेक्टर। इन दो क्षेत्रों में सरकार की कई सरकारी दिग्गज कंपनियां जैसे आईओसी, बीपीसीएल, एचपीसीएल, ओएऩजीसी, बीएसएनएल, एमटीएनएल अनपे झंडे गाड़ चुकी हैं। और सरकारी कंपनियां जैसा करती हैं प्राइवेट कंपनियों को वैसा करना होता है। चाहे वो फोन पर सस्ता बात करना हो या सस्ते पेट्रोल और डीजल बेचना। प्राइवेट कंपनियों को इसे फॉलो करना पड़ता है। और जो कंपनियां ऐसा नहीं करतीं उन्हें मुश्किलों का सामना करना होता है। जैसा कि रिलायंस इंडस्ट्रीज के तेल मार्केटिंग डिवीजन को करना पड़ रहा है। कार्टलाइजेशन की समस्या को ध्यान में रखकर सरकार को चाहिए कि कम से कम उन क्षेत्रों में सरकारी कंपनियों के प्राइवेटाइजेशन पर रोक लगाए जहां लोगों के ज्यादा से ज्यादा हित जुड़े हैं। क्योंकि यही एक बेहतर तरीका होगा प्राइवेट कंपनियों के कार्टलाइजेशन और मोनोपोली पर रोक लगाने का।

गुरुवार, 31 मई 2007

निवेशक न हों गुमराह

निवेश करने से पहले बचत करना जरूरी होता है। लेकिन हर बचत करने वाला निवेश नहीं करता है। यही वजह है कि आज भी देश में निवेशकों की संख्यां नाम मात्र की ही हैं। लेकिन बचत करने वाले उनसे सैकड़ों गुना ज्यादा हैं। इसकी सबसे बड़ी वजह है। जानकारी की कमी। अभी भी ज्यादातर लोग निवेश के लिए सोना और ज़मीन से ज्यादा नहीं सोच पाते हैं। क्योंकि ये परंपरा सदियों से चली आ रही है। लेकिन देश की प्रगति के साथ ही अब लोगों की सोच धीरे धीरे बदल रही है। आज निवेश के लिए ऑप्शन सीमित नहीं है। म्यूचुअल फंड, शेयर बाजार, रियल्टी(फ्लैट्स), शहर के आस-पास की ज़मीन में निवेश का फायदा अब धीरे धीरे लोगों की समझ में आने लगा है। इस तरह के सैकड़ों ऑप्शन अब लोगों के पास मौजूद हैं। लेकिन अभी भी मुट्ठी भर पढ़े लिखे लोग ही इसका फायदा उठा पा रहे हैं। और उनमें से भी कुछ लोग गलत जानकारी की वजह से अपनी खून पसीने की गाढ़ी कमाई गंवा बैठते हैं। इस स्तंभ के जरिए हम एक छोटी सी कोशिश कर रहे हैं लोगों तक सही जानकारी पहुंचाने की। और उद्देश्य यही है कि ये जानकारी शहर से लेकर गांवों तक पहुंचे। ताकि ज्यादा से ज्यादा लोग इसका फायदा उठा पाएं।