मंगलवार, 19 जून 2007

एक साथ दो हवाई जहाज की सवारी !


एक कहावत है कि एक साथ दो नाव की सवारी नहीं करनी चाहिए। ऐसा एक- दो बार नहीं बल्कि कई बार हम सुनते आए हैं। जब भी कोई गलती करते हैं तब। लेकिन महान लोग ऐसा नहीं सोचते। अब शराब सम्राट विजय माल्या को ही लीजिए। इन्होंने तो नाव से भी आगे बढ़कर दो हवाई जहाज की सवारी एक साथ करने की ठान ली है। इनकी हिम्मत की तो दाद देनी होगी। क्योंकि इन्होंने जो दूसरा हवाई जहाज सवारी के लिए चुना है। वो पहले से बिल्कुल अलग है। या कह सकते हैं कि दूसरी दिशा में उड़ रहा है। पहला जहां एशो आराम और अमीरी की बुलंद ऊंचाई पर है। वहीं दूसरा, मध्य वर्गीय यात्रियों को बिना खाना-पानी पूछे उसके डेस्टिनेशन पर पहुंचाता है। पर एक समानता है जिसके आधार पर चाहें तो माल्या अपना बैलेंस बना सकते हैं। ये दोनों एयरलाइंस घाटे में उड़ रही हैं।


एक (किंगफिशर) में चढ़ते ही स्वर्ग जैसी अनुभूति होती है। छोटे- छोटे कपड़ों में अप्सराएं घूमती नजर आती हैं। जिनके चेहरे पर कई इंच लंबी प्लास्टिक की मुस्कान होती है। वहीं दूसरे (एयर डेक्कन) पर चढ़ने के बाद ऐसा लगता है कि हम किसी ट्रेन की बॉगी में आ गए हों। वही जाना पहचाना सा चेहरा। जमीन से जुड़े लोग । जैसे ट्रेन में मूंगफली बेचने वाले घूमते हैं। वैसे ही वहां एयर हॉस्टेस ट्रॉली घसीटते हुए कुरकुरे और बोतलबंद पानी बेचती नजर आती हैं। सीट पर बैठे ज्यादातर चेहरों पर चमक होती है। क्योंकि वो जीवन में पहली बार बादलों को इतने करीब से देख रहे होते हैं।


पर अब ये चमक शायद न देखने को मिले। क्योंकि एयर डेक्कन और किंगफिशर की शादी (मर्जर, एक्विजिशन) हो चुकी है। लेकिन ये कैसी शादी है। बिल्कुल असमान जोड़ी। ये लव मैरिज तो एकदम नहीं है। दोनों पक्षों में से किसी एक ने समझौता किया है। लोग तो यही कहते हैं परिस्थिति (कर्ज का बोझ, घाटा) ने एयर डेक्कन को इस शादी के लिए मजबूर किया है। लेकिन शादी कहीं और (एडीएजी के यहां) भी हो सकती थी ? लेकिन लेन- देन को लेकर शायद बात नहीं बन पाई। और केके यानी किंग और कैप्टन संबंधी बन गए। शायद ऐसा इसलिए भी हो गया कि दोनों दक्षिण भारत (बैंगलोर) के हैं, पड़ोसी हैं, दोनों के रीति- रिवाज एक जैसे हैं।


शायद वर पक्ष (किंग) बहुत पहले से कन्या पक्ष (कैप्टन) के यहां संबंध बनाना चाहता था। और इसीलिए कन्या (एयर डेक्कन) के 2004 में पैदा होने के एक साल बाद जब वर (किंगफिशर) पैदा हुआ। तो किंग ने अपने बच्चे को वैसी ही थाली में खाना खिलाया जिसमें कन्या खाया करती थी। भले ही थाली में रोटी के बदले पकवान पड़ोसे जाते रहे हों। लेकिन थाली वैसा ही रखा (एयरबस फ्लीट, इंजन ब्रेक्स, एटीआर, एविओनिक्स, रोटेबल्स, लुफ्तहांसा टेक्निक्स से मेंटेनेंस) जैसा कन्या के पास था। ताकि बाद में दोनों एक साथ एक ही थाली (हवाई रूट) से काम चला सकें। और थाली के रख रखाव में भी अलग से खर्च ना करना पड़े।


इस शादी के सहारे किंग निकल पड़े हैं दो हवाई जहाज के सवारी पर। लेकिन क्या वो बैलेंस बना पाएंगे। क्या ये शादी एयर फ्रांस और नीदरलैंड के केएलएम की शादी की तरह सफल हो पाएगी। क्योंकि ये दुनिया की सबसे से ज्यादा कमाई करने वाली एयरलाइंस बन चुकी है।


अगर एयर डेक्कन और किंगफिशर मिलकर घाटे से भी जल्द उबर जाएं तो बड़ी बात होगी। क्योंकि दोनों का वर्क कल्चर अलग है। एयर डेक्कन का केबिन क्रू, एयर होस्टेस और स्टाफ सरकारी बसों और लोकल ट्रेनों से सफर करते हैं। तो पायलट होटल की बजाए गेस्ट हाऊसों में रुकते हैं। वहीं किंगफिशर अपने स्टाफ को वो सारी सुविधाएं मुहैया कराती हैं। जो एक इंटरनेशनल एयरलाइंस देती हैं। यानी दोनों का कल्चर मिलने पर या तो एयर डेक्कन का स्तर ऊपर उठेगा। जिससे किराया बढ़ेगा (वैसे भी माल्या को लो कॉस्ट पर भरोसा नहीं है)। या किंगफिशर का स्तर नीचे आएगा। जिससे जेट एयरवेज को फायदा होगा। हालांकि ऐसा नहीं लगता की कभी किंग दूसरे ऑप्शन पर विचार भी करेंगे। जो भी हो ये दोनों ही ऑप्शन नए लोगों को हवाई सफर के लिए तैयार करने के लिए नाकाफी है।


यानी किंग को मुनाफा कमाने के लिए कोई तीसरा तरीका अपनाना होगा। और ये तीसरा तरीका लो कॉस्ट को बढ़ावा देना हो सकता है। तभी ज्यादा से ज्यादा लोग हवाई सफर कर पाएंगे। और तभी कंपनी टर्न अराउंड जल्दी से कर पाएगी। नहीं तो महंगे एटीएफ, और रूला देने वाले कंजेशन चार्ज सहित खाली उड़ानों के लिए कंपनी को बाध्य होना पड़ेगा। जिससे ना तो कंपनी का भला होगा और ना ही लोगों का।


जेट-सहारा, किंगफिशर-एयर डेक्कन, इंडियन- एयर इंडिया की हवाई शादी के बाद गो एयर, स्पाइस जेट जैसे लो कॉस्ट एयरलाइंस में अफरा-तफरी मची है। जल्द ही ये भी किसी एयरलाइंस से मिलने को आतुर दिख रहे हैं। ऐसे में सरकार को कुछ पहल करने की जरूरत है। सरकारी महकमे में घरेलू एयरलाइंस की हिस्सेदारी विदेशी एयरलाइंसों के हाथों बेचे जाने की इजाजत दिए जाने की चर्चा गरम है। हालांकि विमानन मंत्रालय इसके पक्ष में फिलहाल नहीं है। लेकिन वित्त मंत्रालय ऐसा चाहती है।


जो भी हो इतना तो तय है कि जबतक हवा में कंपीटिशन है। तभी तक लोगों को सस्ता सफर का मजा मिल सकता है। सस्ता की चाहत में ही लाखों लोग एयरपोर्ट की ओर रुख करेंगे और जब लोग आएंगे तभी नए नए एयरपोर्ट और डेस्टिनेशन आस्तित्व में आ पाएंगे। और ये सेक्टर देश की ग्रोथ के साथ ताल में ताल मिलाकर आगे बढ़ पाएगा।


यानी कंपीटिशन बनाए रखने के लिए सरकार को एविएशन पॉलिसी पर गंभीर विचार करने की जरूरत है। टैक्सों के जरिए अपना खजाना भरने के साथ ही सरकार को लोगों और घाटे में लहूलुहान हो रही कंपनियों का भी ख्याल रखना होगा।

गुरुवार, 14 जून 2007

टिनप्लेट में मीठा निवेश

टिनप्लेट टाटा की कंपनी है। करीब 85 साल पुरानी इस कंपनी का भारतीय टिनप्लेट बाजार पर एकाधिकार है। कंपनी का मार्केट शेयर इस समय 40 परसेंट के करीब है। कंपनी टिन के डिब्बे, केन(जिसमें शराब, कोल्ड ड्रिंक्स, तेल आदि मिलते हैं), अनाज और दूसरे खाने के सामान रखने के डिब्बे सहित पैकेजिंग क्षेत्र में उपयोग में आने वाली कई तरह के बड़े-छोटे बॉक्स बनाती है।

कंपनी भले ही पुरानी है। लेकिन इसका काम करने का तरीब अब बिल्कुल बदल रहा है। ये कंपनियों के डिमांड पर उत्पाद बनाने के साथ ही अब कंपनियों को अच्छी और नए डिजाइन की पैकेजिंग के लिए प्रोत्साहित भी करती है। यानी कि मार्केट शेयर बढ़ाने का नया तरीका जो कि इस क्षेत्र की दूसरी कंपनियों से इसे आने वाले दिनों में और आगे बढ़ा देगा। इसके कॉलगेट और अदानी जैसे कई बड़े ग्राहक हैं।

रिटेल का युग शुरू हो रहा है। बिड़ला, गोदरेज, रिलायंस, वॉलमार्ट, गोयंका जैसे कई बड़े खिलाड़ी इससे जुड़ चुके हैं। और आने वाले दिनों में कई बड़े मल्टीनेशनल रिटेलर भारत में अपना कारोबार करने के लिए कतार में खड़े हैं। हजारों करोड़ रुपए के रिटेल बिजनेस का फायदा टिनप्लेट को बड़े पैमाने पर होगा। क्योंकि बिग बाजार, मेगा मॉल, सुपर मॉल में समानों की पैकेजिंग पर विशेष ध्यान दिया जाता है। और शायद यही वजह है कि टिनप्लेट ने खुद को ट्रांसफॉर्म करने का इरादा बना लिया है। यानी अब कंपनी केवल 'टिनप्लेट मैन्युफैक्चरर' ही नहीं होगी दुनियां इसे 'मेटल पैकेजिंग सॉल्यूशन प्रोवाइडर' के रुप में जानेगी।

फिलहाल कंपनी अपने उत्पादन का करीब 25 परसेंट हिस्सा एक्सपोर्ट करती है। कंपनी का ज्यादातर एक्सपोर्ट दक्षिण पूर्व एशिया, मिडिल ईस्ट और यूरोप के कुछ अमीर देशों को होता है। आने वाले दिनों में कंपनी का इरादा कुछ और देशों में एक्सपोर्ट करने का है। साथ ही कंपनी ने एशिया के टिनप्लेट बिजनेस का एक बड़ा खिलाड़ी बनने का लक्ष्य रखा है।

भारतीय पैकेजिंग इंडस्ट्री में टिनप्लेट के लिए असीम संभावनाएं हैं। क्योंकि इस समय करीब 50 हजार करोड़ रुपए के कुल पैकेजिंग इंडस्ट्री में टिनप्लेट पैकेजिंग की हिस्सेदारी करीब 6 परसेंट ही है। लेकिन इसके 10 परसेंट तक पहुंचने का अनुमान है। साथ ही घरेलू पैकेजिंग इंडस्ट्री सलाना करीब 20 परसेंट की दर से बढ़ रही है। और आने वाले दिनों में इसमें और तेजी आने की उम्मीद है।

इंडियन प्रॉसेसिंग इंडस्ट्री का एक्सपोर्ट साल दर साल 200 परसेंट से ज्यादा की रफ्तार से बढ़ रहा है। 2002-2003 में इस सेक्टर से 17600 करोड़ रुपए का एक्सपोर्ट हुआ। जो कि 2003-2004 में बढ़कर 53000 करोड़ रुपए पर पहुंच गया है। प्रॉसेसिंग इंडस्ट्री के बढ़ते एक्सपोर्ट में पैकेजिंग का फायदा टिनप्लेट को मिलेगा।

दुनियाभर में फूड पैकेजिंग इंडस्ट्री का करीब 87 परसेंट पैकेजिंग टिनप्लेट में ही की जाती है। क्योंकि इसमें खाने के स्वाद को ज्यादा समय तक बचाए रखने की शक्ति होती है। साथ ही इसमें रखे गेहूं, चावल, दाल के महत्वपूर्ण तत्व सालों तक बचे रहते हैं। लेकिन भारत के फूड पैकेजिंग इंडस्ट्री में टिनप्लेट की हिस्सेदारी काफी कम है। पर हां, बड़े-बड़े रिटेलरों के आने से इसकी ज्यादा से ज्यादा यूज होने की संभावना बनी है।

कंपनी ने अपने जमशेदपुर स्थित प्लांट में 210 करोड़ रुपए का निवेश किया है। ताकि उत्पादन क्षमता को 2008 तक बढ़ाकर 3 लाख 80 हजार टन किया जा सके। टिनप्लेट का इको फ्रेंडली होना भी इसका एक प्लस प्वाइंट है। जैसे जैसे लोगों में प्रर्यावरण के बारे में जागरूकता बढ़ेगी। प्लास्टिक का यूज कम होने लगेगा। और उसका जगह लेने लगेगा टिनप्लेट।

यानी अगर आप सचमुच स्टील जैसा मजबूत निवेश करना चाहते हैं। तो टिनप्लेट एक बेहतर ऑप्शन है। क्योंकि इस कंपनी से ज्यादा से ज्यादा रिटर्न हासिल किया जा सकता है।

डिस्क्लेमर: मेरे पास टिनप्लेट के कुछ शेयर हैं

मंगलवार, 12 जून 2007

एयर डेक्कन का आम आदमी भटक गया रास्ता !


किंगफिशर ने एयर डेक्कन में 26 परसेंट हिस्सेदारी खरीदी। अब किंगफिशर के किंग यानी विजय माल्या के संगत में आ गया है एयर डेक्कन का ब्रांड एम्बेस्डर यानी आम आदमी। अब क्या होगा देश के लाखों करोड़ों आम आदमी का। कौन उसके सपने को सच करेगा। कौन उसे हवा की सैर कराएगा ?!!!!

रविवार, 10 जून 2007

बाप बड़ा ना भैया सबसे बड़ा रुपैया

महंगाई कम हो रही है और रुपया फिर से कमजोर हो रहा है। ये किसी जादू से कम नहीं है। क्योंकि अबतक ऐसा लग रहा था कि आरबीआई को फिर से पांच- दस और बीस पैसे के सिक्के जारी करने पड़ेंगे। क्योंकि लगातार कई हफ्तों से महंगाई दर कम हो रही थी और रुपया लगातार मजबूत हो रहा था। लेकिन शायद अब ऐसा न करना पड़े क्योंकि रुपए में गिरावट शुरू हो चुकी है। साथ ही महंगाई के मामले में सरकार ने सिक्सर लगा दी है। क्योंकि महंगाई दर लगातार छे हफ्तों से गिरते-गिरते 4.85 पर आ गई है। जो कि आरबीआई की लक्ष्य से केवल 0.35 परसेंट ही आगे है। और जनवरी से 8 परसेंट मजबूत हो चुके रुपए में केवल एक दिन(हफ्ते के आखिरी कारोबारी दिन) में 43 पैसे की भारी गिरावट आ गयी। और ये डॉलर के मुकाबले गिरकर 41.13 पर पहुंच गया है। जिससे निर्यातकों ने राहत की सांस ली है। लेकिन ये राहत लंबे समय के लिए नहीं लग रही है।

क्योंकि रुपए की इस गिरावट में सरकार की कोशिशों से ज्यादा बाजार में गिरावट का हाथ है। क्योंकि इस हफ्ते विदेशी संस्थागत निवेशकों(एफआईआई) ने जमकर बिकवाली की है। और भारी तादाद में डॉलर लेकर अपने अपने देश चले गए हैं। साथ ही महंगे होते कच्चे तेल ने भी रुपए को राहत पहुंचाई है। क्योंकि फिर से करीब 67 डॉलर प्रति बैरल पर पहुंच चुके कच्चे तेल की कीमतों को देखते हुए। तेल कंपनियों ने अपना डॉलर का खजाना बढ़ाने के लिए बड़े पैमाने पर डॉलर की खरीदारी की है। यानी सिस्टम में यकायक बड़े पैमाने पर डॉलर की मांग बढ़ी जिससे रुपया कमजोर हो गया।


ऐसा नहीं है कि आरबीआई हाथ पर हाथ धरे बैठी रही। पूरे हफ्ते आरबीआई रुपए को राहत देने के लिए बाजार से डॉलर बटोरती रही। लेकिन हफ्ते के आखिरी कारोबारी दिन डॉलर की अचानक मांग बढ़ने से आरबीआई को डॉलर बाजार में छोड़ना पड़ा। ताकि रुपए में एक हद से ज्यादा उतार-चढ़ाव एक दिन में न हो पाए। फिर भी पूरे हफ्ते डॉलर की अंधाधुंध खरीदारी की वजह से केवल इसी हफ्ते देश के विदेशी मुद्रा भंडार में 3.5 अरब डॉलर और जुड़ गया। जो कि पिछले सात हफ्तों में सबसे अधिक है। और ये बढ़कर 208 अरब डॉलर से ज्यादा हो गया है। आरबीआई के आंकड़े बताते हैं कि पिछले सात हफ्तों से विदेशी मुंद्रा भंडार में 1 अरब डॉलर से भी कम रकम जुड़ते रहे हैं।

हालांकि आरबीआई के लिए लिक्विडिटी को कंट्रोल में रखते हुए रुपए पर लगाम लगाना काफी कठिन काम है। क्योंकि लिक्विडिटी की मार से बचने के लिए ही ज्यादातर बैंक डॉलर बेचते हैं। जिससे बाजार में डॉलर की बाढ़ आ जाती है और रुपया भाव खाने(मजबूत होने) लगता है। जिसके बाद आरबीआई हरकत में आता है लेकिन एक सीमा तक ही डॉलर की खरीदारी कर पाता है। क्योंकि ज्यादा खरीदारी करने से बाजार में फिर रुपए की बाढ़ आ जाएगी। और लिक्विडिटी पर से आरबीआई का कंट्रोल खत्म होने लगेगा। जिससे महंगाई बढ़ने लगेगी। और महंगाई ने केंद्र की यूपीए सरकार को कई राज्यों के चुनाव में धूल चटवाई है। इसलिए सरकार की अब पहली प्राथमिकता महंगाई बन गई है। उसके बाद ही रुपए की मजबूती का नंबर आता है।


एक्सपोर्टरों की समस्या का फिलहाल कोई स्थाई निदान नहीं निकल पाया है। ऐसा अनुमान लगाया जा रहा है कि आने वाले दिनों में रुपया और मजबूत होगा। और पहले से ही रो रहे हैंडीक्राफ्ट, टेक्सटाइल, लेदर, जेम्स और ज्वेलरी, कैमिकल, आईटी उद्योगों को और परेशानी का सामना करना पड़ सकता है। क्योंकि इनकी ज्यादातर कमाई डॉलर में होती है। और डॉलर को जब ये रुपया में बदलते हैं तो इन्हें उतना रुपया नहीं मिल पाता जितना छे महीने पहले मिलता था। फिर भी इनमें से जेम्स एंड ज्वेलरी जैसे उन उद्योगों को ज्यादा परेशानी नहीं है जो कच्चा माल का आयात करते हैं। क्योंकि रुपया मजबूत होने से आयात सस्ता हो जाता है। लेकिन जो यहीं कच्चा माल खरीदते हैं उन्हें ज्यादा नुकसान उठाना पड़ता है। आईटी कंपनियों में भी आलम कुछ ऐसा ही है लोगों की सैलरी आसमान छू चुकी है। साथ ही एट्रिशन से बचने के लिए उनका अप्रेजल भी सही समय पर करना होता है। जिससे कंपनी का मार्जिन कम हो रहा है। रुपए की कीमत के अनुसार एक्सपोर्टर अपनी कीमत बढ़ा नहीं पाते हैं। क्योंकि विदेशी बाजार में तगड़ा कंपीटीशन है। अगर एक्सपोर्टर अपने सामान की कीमत बढ़ाएंगे तो खरीदार बांग्लादेश, चीन, फीलिपींस जैसे देशों के सस्ते सामान की ओर रुख कर लेंगे।


एक्सपोर्टरों के हितों को सरकार किस तरह देख रही है। ये अभी तय नहीं हो पाया है। क्योंकि वाणिज्य मंत्री कमलनाथ कभी कहते हैं एक्सपोर्टरों को हो रहे नुकसान के लिए उनका कंपीटीटिव नहीं होना जिम्मेदार है। और उन्हें रुपए की मजबूती का ख्याल छोड़कर आज के बाजार में टिके रहने के लिए कंपीटीटिव होना होगा। जबकि वाणिज्य राज्य मंत्री जयराम रमेश एक्सपोर्टरों को हो रहे नुकसान से बचाने के लिए करों में कुछ छूट की बात करते हैं।



सबसे बड़ी समस्या शेयर बाजार के सामने आ सकती है। क्योंकि मार्क फेबर जैसे बड़े निवेश गुरूओं की राय यही है कि भारतीय बाजार ओवर वैल्यूड है। साथ ही चीनी बाजार में आए भारी करेक्शन से अभी सेंटिमेंट भी खराब है। ऐसे में पहले से ही शेयर बाजार में मोटी कमाई पर बैठे एफआईआई को अगर मजबूत रुपए का साथ मिल जाता है। तो उनके लिए सोने पे सुहागा होगा। क्योंकि बाजार से निकलने पर उन्हें एक डॉलर अपने घर ले जाने के लिए पहले 45-47 रुपए खर्चने पड़ते थे। जो कि घटकर 40-41 रु पर आ गया है। अगर ये और कम होता है तो आंधी की तरह ज्यादातर एफआईआई इस बाजार से बाहर हो जाएंगे। और तब शेयर बाजार में ऐतिहासिक गिरावट को कोई नहीं रोक पाएगा।

सोमवार, 4 जून 2007

रिलायंस कम्युनिकेशन में काफी दम है


रिलायंस कम्युनिकेशन की रफ्तार रोके नहीं रुक रही है। आखिर रुके भी क्यों, दुनियाभर में सब से ज्यादा तेजी से भारत में टेलीकॉम बिजनेस बढ़ रहा है। जिस तरह रिलायंस इंडस्ट्रीज पर मुकेश अंबानी के साथ ही देश को नाज है। उसी तरह रिलायंस कम्युनिकेशन अनिल अंबानी का कमाऊ पूत है। और अगर देश की बात करें तो रिलायंस इंडस्ट्रीज से ज्यादा लोग रिलायंस कम्युनिकेशन को जानते हैं। क्योंकि इसकी पहुंच गांवों-गांवों तक हो चुकी है। और इसी ने सब्जी बेचने वालों से लेकर धोबी, नाई, रिक्शा पुलर जैसे साधारण लोगों के मोबाइल पर बात करने के सपने को सबसे पहले साकार किया है। गांवों में तो अब लोग रिलायंस का मतलब ही फोन समझते हैं।

हच एस्सार को खरीदने में नाकाम होने के बाद ऐसा लगा था कि इसकी रफ्तार धीमी होगी। पर ऐसा नहीं हुआ। हालांकि उस डील को कर लेने के बाद कंपनी एक झटके में अपने जीएसएम सर्विस में छा जाती। जो कि नहीं हो सका। पर कंपनी ने हार नहीं मानी। अपने नेटवर्क में ज्यादा से ज्यादा कंज्यूमरों को जोरने के लिए कंपनी एग्रेसिव रुख अख्तियार कर चुकी है। देश के कुल 17 करोड़ मोबाइल धारकों में से 3 करोड़ लोग रिलायंस के नेटवर्क से जुड़े हैं। हाल ही में कंपनी ने रोमिंग दरों को घटाकर सनसनी फैला दी। क्योंकि कंपनी ने ये कदम सरकारी कंपनी बीएसएनएल- एमटीएनएल से पहले उठा ली थी। उसके बाद जब बीएसएनएल- एमटीएनएल ने रोमिंग दरों में कटौती का ऐलान किया तो। तो रिलायंस कम्युनिकेशन ने फिर से और कटौती का ऐलान कर दिया।

हालांकि देश की सबसे बड़ी प्राइवेट टेलीकॉम कंपनी एयरटेल ने फिलहाल किसी कटौती का ऐलान नहीं किया है। लेकिन ऐसा अनुमान है कि अगले कुछ ही हफ्तों में वो रोमिंग दरों में कटौती का ऐलान करने वाली है।

रोमिंग दरों में ट्राई के फीस कम करने के बाद रिलायंस ने रोमिंग दरों में कटौती करने जो सिलसिला शुरू किया है। उसे देखकर निवेशक डरे हुए हैं। और डरें भी क्यों नहीं। कंपनी की कमाई का करीब 40 परसेंट रोमिंग से ही जो आता है। आगे बढ़कर कटौती शुरू करने की नीति को हमें एक अच्छी नीति ही मानना चाहिए। क्योंकि बीएसएनएल के ऐलान के बाद आज न कल उसे ये करना ही पड़ता। तो फिर पहले क्यों नहीं। इसका फायदा कंपनी को हुआ है और हो रहा है। इसके कनेक्शन लेने वालों की रफ्तार बढ़ गई है। और जबतक एयरटेल और हच रोमिंग दरों में कटौती करने से बचते रहेंगे। इसकी तेज रफ्तार जारी रहेगी। साथ ही कंपनी लगातार सस्ते मोबाइल हैंड सेट लांच कर रही है। जिसके चलते भी इस नेटवर्क से ज्यादा से ज्यादा लोग जुड़ रहे हैं। और जब तक वोडाफोन सबसे सस्ता फोन लांच करेगा तबतक रिलायंस नेटवर्क की झोली में लाखों ग्राहक आ चुके होंगे।

टेलीकॉम बिजनेस में कमाई की पहली सीढ़ी कनेक्शन ही होती है। अगर घाटे में भी किसी कंपनी ने कनेक्शन का जाल फैला दिया तो आने वाले दिनों में मुनाफा खुद ब खुद होने लगता हैं। क्योंकि नंबरों का एट्रिशन (एक सर्विस प्रोवाइडर से दूसरे सर्विस प्रोवाइडर में जाना) कुछ दिनों के बाद कठिन हो जाता है। विदेशों में तो इस तरह के एट्रिशन के लिए टेलिकॉम प्रोवाइडर महंगे-महंगे प्रलोभन देते हैं। पर हां अपने सब्सक्राइबर कर बचाए रखने के लिए भी कंपनियां अपने वफादार कंज्यूमर को गिफ्ट बांटती रहती हैं। लेकिन ये सिलसिला भारत में शुरू होने में अभी काफी समय है। क्योंकि ये तब शुरू होता है जब देश में हर किसी के हाथ में मोबाइल हो।

देश की दूसरी सबसे बड़ी प्राइवेट टेलीकॉम कंपनी का दर्जा होने के बावजूद इंटिग्रेटेड टेलीकॉम सर्विस के मामले में रिलायंस टेली देश की सबसे बड़ी कंपनी है। इंटिग्रेटेड यानी की जीएसएम, सीडीएमए, ब्रॉडबैंड, इंटरनेशनल अंडर सी केबल नेटवर्क जैसे सर्विस देने वाली एक ही कंपनी। आने वाले दिनों अगर ये कंपनी जीएसएम मामले में पीछे रह भी जाती है तो दूसरी चीजों में इसे पकड़ने वाला कम से कम भारत कोई नहीं होगा। और खासकर ब्रॉडबैंड में तो काफी बेहतर स्कोप दिख रहे हैं। अगले कुछ दिनों में रिलायंस के जीएसएम के भिवष्य पर फैसला हो जाएगा। क्योंकि सरकार इसके लिए स्पेक्ट्रम रिलीज करने वाली है। जीएसएम में रिलायंस कम्युनिकेशन की रफ्तार क्या होगी ये बहुत हद तक उसे मिलने वाले स्पैक्ट्रम पर निर्भर करेगा। और स्पैक्ट्रम की कीमत पर भी। क्योंकि सरकार स्पैक्ट्रम के लिए विदेशों से भी टेंडर मंगाना चाहती है। यानी बड़ी विदेशी कंपनियां अगर टेंडर नहीं भी ले पाती हैं तो कम से कम स्पैक्ट्रम की कीमत को तो जरूर चढ़ा देंगी।

कुल मिलाकर निवेश की नजरिए से ये एक बहुत अच्छा स्टॉक है। क्योंकि आने वाले दिनों में रिलायंस कम्युनिकेशन से दो और कंपनियां निकलती दिख रही है। एक तो होगा इस इंटरनेशनल अंडर सी केबल नेटवर्क वाली कंपनी फ्लैग टेलीकॉम। जो कि इसकी 100 परसेंट सब्सिडियरी है। और हाल ही में एक ब्रिटिश नेटवर्क कंपनी के साथ किए समझौते के बाद इसकी पहुंच दुनिया के 6 महादेशों तक हो गई है। यानी कि ये रिलायंस कम्युनिकेशन को कमाई कराने वाला बेटा है। जिसकी लिस्टिंग जल्द ही लंदन स्टॉक एक्सचेंज में होने वाली है। और रिलायंस कम्युनिकेशन का दूसरा वाल छोटा बेटा है रिलायंस टेली टावर इंफ्रास्ट्रक्चर। कंपनी इसकी 26 परसेंट हिस्सेदारी किसी विदेशी कंपनी के हाथों बेचने की तैयारी में है। फिलहाल कंपनी के पास 14000 टॉवर हैं और कंपनी की योजना 20000 और टॉवर बनाने की है। आने वाले दिनों में ये एक अगल कंपनी की तौर पर बाजार में लिस्ट हो सकती है। और इन दोनों कंपनियों का फायादा रिलायंस कम्युनिकेशन के शेयर धारकों को जरूर होगा।

रविवार, 3 जून 2007

मोनोपोली और कार्टलाइजेशन बनाम सरकार

भारतीय इकॉनोमी के खुलने से पहले यानी 1991 के पहले देश में मोनोपोली का जोर हुआ करता था। तब हर क्षेत्रों में गिनी चुनी कंपनियां थीं। जो अपनी मनमानी करती थीं। जो मर्जी होता था वो कीमत लोगों से वसूला करती थीं। इसका एक सीधा सा उदाहरण है बिड़ला का हिंदुस्तान मोटर्स जो कि एम्बैस्डर कार बनाती है। ये कंपनी इस साल अपनी 50 वीं वर्षगांठ मना रही है यानी गोल्डेन जुबली। लेकिन आज के दिन कंपनी के पास केवल गोल्डन यादें ही बची रह गई हैं। क्योंकि आज कार बाजार में इसका मार्केट शेयर नाम मात्र का ही बच गया है। आज हर साल करीब 14 लाख कारें बिकती हैं जिसमें एम्बैस्डर खरीदने वालों की संख्यां होती है करीब 15 हजार। लेकिन वो भी एक समय था जब हिंदुस्तान मोटर्स की मोनोपोली का जोर करीब तीन दशकों तक लोगों की सरों पर तांडव करता रहा। लोगों से मनमानी कीमत वसूलता रहा। यही नहीं मनमानी कीमत देने के बावजूद लोगों को एम्बैस्डर की सवारी के लिए महीनों इंतजार करना पड़ता था। वहीं रसूख वाले लोगों और लालफीताशाही वालों को सवारी का मौका पहले मिल जाया करता था। तब भारतीय कार बाजार के 70 परसेंट हिस्से पर इसका कब्जा हुआ करता था। 1980 के दशक में इंदिरा गांधी के पुत्र संजय गांधी ने देश में मारूति की नींब रखी। जिसके बाद मारूति की बहाव में एम्बैस्डर बह गया। और छोटी कार यानी पीपुल्स कार बनाने वाली मारूति देश में कार बनाने वाली नंबर वन कंपनी बन गई। आज देश में छोटी बड़ी कार खरीदने के कई ऑप्शन मौजूद हैं। लेकिन देश की इकॉनोमी के ओपन होने के बाद आज एक दूसरी तरह की समस्या देश के सामने सुरसा की भांति मुंह बाए खड़ी है। इस समस्या का नाम है कार्टलाइजेशन जिसने सरकार की नींद उड़ा रखी है। इससे बचने के लिए प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह को कार्टलाइजेशन से परहेज करने की अपील करनी पड़ी। आखिर क्या है कार्टलाइजेशन ? ये मोनोपोली का ही एक्सटेंशन है । जिसमें किसी क्षेत्र की सारी कंपनियां मिलकर कीमतों को जानबूझकर चढ़ाए रखती है। उन्हें ये चिंता नहीं होती की इससे देश की ग्रोथ पर क्या असर पड़ रहा है या लोगों के बजट कितने लहूलुहान हो रहे हैं। कार्टलाइजेशन का एक सीधा सा उदाहरण देखने को मिला सीमेंट इंडस्ट्री में। जहां कंपनियों ने आपस में मिलकर भाव को सातवें आसमान पर चढ़ा दिया। सरकार ने इसपर लगाम लगाने के तमाम कोशिश की। सीमेंट के उत्पादन पर दोहरा उत्पाद कर लागा दिए। इंपोर्ट ड्यूटी खत्म कर दी। फिर भी कंपनियों ने भाव नीचे नहीं किए। तो सरकार ने महंगे सीमेंट पर उत्पाद कर में कुछ छूट के साथ एडवैल्यूरेम ड्यूटी लगा दी। यानी टैक्स की अनंत सीमा। अब कंपनियां जितना ज्यादा भाव पर सीमेंट बेचेंगी उन्हें उसी अनुपात में टैक्स देना होगा। हालांकि इससे भी कीमतों पर पूरी तरह से लगाम लगा पाना संभव नहीं दिख रहा है। प्राइवेटाइजेशन के इस युग में अब प्राइवेटाइजेशन पर सवाल उठने लगा है। क्योंकि यही देखा जा रहा है जिन क्षेत्रों में सरकारी कंपनियों की पकड़ ढ़ीली है वहां या तो मोनोपोली हावी हो जाता है या कार्टलाइजेशन। जबकि जिन क्षेत्रों में सरकार के पैर जमे हैं वहां इसतरह की समस्या नहीं देखने को मिलती है। इसका उदाहरण है पेट्रोलियम और टेलीकॉम सेक्टर। इन दो क्षेत्रों में सरकार की कई सरकारी दिग्गज कंपनियां जैसे आईओसी, बीपीसीएल, एचपीसीएल, ओएऩजीसी, बीएसएनएल, एमटीएनएल अनपे झंडे गाड़ चुकी हैं। और सरकारी कंपनियां जैसा करती हैं प्राइवेट कंपनियों को वैसा करना होता है। चाहे वो फोन पर सस्ता बात करना हो या सस्ते पेट्रोल और डीजल बेचना। प्राइवेट कंपनियों को इसे फॉलो करना पड़ता है। और जो कंपनियां ऐसा नहीं करतीं उन्हें मुश्किलों का सामना करना होता है। जैसा कि रिलायंस इंडस्ट्रीज के तेल मार्केटिंग डिवीजन को करना पड़ रहा है। कार्टलाइजेशन की समस्या को ध्यान में रखकर सरकार को चाहिए कि कम से कम उन क्षेत्रों में सरकारी कंपनियों के प्राइवेटाइजेशन पर रोक लगाए जहां लोगों के ज्यादा से ज्यादा हित जुड़े हैं। क्योंकि यही एक बेहतर तरीका होगा प्राइवेट कंपनियों के कार्टलाइजेशन और मोनोपोली पर रोक लगाने का।