सोमवार, 2 जुलाई 2007

भारतीय सेज: कांटों या फूलों का ?


SEZ (सेज) यानी स्पेशल इकॉनोमिक ज़ोन की आंधी आजकल देश में चल रही है। केंद्र और राज्य सरकारें (चाहे किसी भी दल की हों) इस आंधी को चीनी चश्मे से देख रहे हैं। इसलिए उन्हें इसमें सुख, समृद्धि की ताकत दिख रही है। और शायद यही वजह है कि लेफ्ट भी इस आंधी में राइट का रूख पकड़ चुका है।


जबकि सच्चाई कुछ और है। दुनियाभर के करीब 3000 एसईजेड में शायद ही कोई ऐसा है जो चीन के कुल पांच में से किसी एक एसईजेड की बराबरी कर पाए। रूस सहित दुनिया के कई एसईजेड फ्लॉप सबित हुए हैं। क्योंकि चीन की हर बात की नकल नहीं की जा सकती। सस्ता लेबर, ज्यादा मेहनती लोग, कोस्टल एरिया, सरकार की मजबूत पकड़, सब्सिडी आदि चीन के एसईजेड के सफल होने के मूलमंत्र हैं।


अगर चीन के एसईजेड में एक आदमी हर घंटे 10 पंखे की वायरिंग करता है। और दिन का मेहनताना केवल 200 रु लेता है। तो इसमें उसके एसईजेड मॉडेल का क्या हाथ है ? ये तो वहां के लोगों की अच्छी प्रोडक्टिविटी है। एसईएज का फायदा तो केवल ये है कि वो पंखे कुछ ही क्षणों में बहुत कम ढ़ुलाई खर्च पर एक्सपोर्ट के लिए जहाज पर पहुंच जाता है। क्या ऐसा भारत में हो पाएगा। शायद नहीं, क्योंकि यहां का इंफ्रास्ट्रक्चर चीन से मीलों पीछे है। लोगों की उत्पादकता भी उतनी नहीं है। कच्चे माल महंगे हैं, बिजली महंगी है, ढ़ुलाई खर्च ज्यादा है। एसईजेड बनने के बाद भी इसमें ज्यादा बदलाव होता नहीं दिख रहा है। क्योंकि एसईजेड का बंदरबांट हो रहा है। उत्तरांचल, तमिलनाडु, पश्चिम बंगाल, गुड़गांव, पुणे में बनने वाले ऑटो फैक्ट्रियों को सरकार अगर किसी एक ही एसईजेड या किसी एक ही शहर के एसईजेड में ला पाती। तो इसका फायदा जरूर ऑटो कंपनियों और इससे जुड़े एसएमई सहित देश को होता। लेकिन दुर्भाग्य ये है कि सरकार की ऐसी कोई नीति नहीं है।


सरकार तो बस कुकुरमुत्ते की तरह एसईजेड खोलने में लगी है। अगर सरकार किसी एक सेक्टर का एसईजेड किसी एक एरिया में बनाती है तो उसके दूरगामी अच्छे परिणाम होंगे। और उसके बाद भले ही हमारे उत्पाद चीन से कीमतों में कुछ ज्यादा महंगे होंगे लेकिन क्वालिटी के मामले में हम भारी पड़ सकते हैं। लेकिन क्वालिटी का फायदा हमें तभी मिलेगा जब दोनों देशों के उत्पादों के बीच कीमतों की खाई कुछ कम हो।


एसईजेड का कानून जिसे हम एसईजेड एक्ट 2005 के नाम से जानते हैं। इसे 10 फरबरी 2006 को लागू किया गया। इसके तहत 22 जून 2007 तक कुल 127 एसईजेड को काम शुरू करने की फाइनल इजाजत दे दी गई । यानी बोर्ड ऑफ एप्रूवल ने इसे नॉटिफाइ कर दिया। इस कानून के तहत सबसे पहले देबी लेबोरेटरीज को करीब 105 हेक्टेयर पर फार्मास्युटिकल एसईजेड बनाने की इजाजत दी गई। इस कानून के तहत बने 63 एसईजेड में काम भी शुरू हो चुका है। जिसमें करीब साढ़े 18 हजार लोगों को रोजगार मिला है। इन 63 एसईजेड को बनाने में कंपनियों ने साढ़े 13 हजार करोड़ रु का निवेश किया है। इस कानून के बनने से पहले देश में 19 छोटे-छोटे एसईजेड काम कर रहे थे। जिसके एक्सपोर्ट ग्रोथ में 2003 से 2006 के बीच 15 परसेंट की गिरावट आई है। इसके बावजूद सरकार सामान्य ढर्रे पर चलने से बाज नहीं आना चाहती।


किसानों और विस्थापितों के पुनर्वास की समुचित व्यवस्था करने के लिए सरकार ने कुछ समय के लिए SEZ के बंदरबांट को रोक लिया था। और उस दौरान SEZ कानून में दूसरा सुधार कर डाला। यानी अब कोई भी एसईजेड 5 हजार हेक्टेयर से बड़ा नहीं होगा। और किसानों से अब जमीन कंपनियां खुद खरीदेंगी। लेकिन इसमें विस्थापितों के पुनर्वास की समुचित व्यवस्था की कोई झलक नहीं मिलती। अब अगर 25 एकड़ में एसईजेड बने या 5 हजार हेक्टेयर में लोग तो विस्थापित होंगे ही। क्योंकि सारे एसईजेड शहर के आसपास ही बन रहे हैं। विस्थापितों की समस्यायों को दूर किए बगैर ही सरकार फिर से नारा लगाने लगी है एसईजेड ले लो, एसईजेड ले लो!


सरकार ने कुल 234 एसईजेड के जरिए 3 लाख करोड़ रु के निवेश और 40 लाख नौकरियों का लक्ष्य रखा है। पर ये दूर का ढ़ोल ही लगता है। क्योंकि एफडीआई खींचने की महत्वाकांक्षा के बावजूद ज्यादातर एसईजेड में देश की कंपनियों का ही पैसा लग रहा है। और अबतक पास हुए कुल एसईएज का करीब 70 परसेंट आईटी और आईटीईएस से ही संबंधित है। इसकी एक वजह है। इनकी टैक्स हॉलिडे 2009 में खत्म हो रहे हैं। इसलिए ये कंपनियां 15 साल के दूसरे टैक्स हॉलिडे (एसईजेड पर) में शिफ्ट कर रही हैं। वित्त मंत्रालय और वाणिज्य मंत्रालय के बीच तनातनी की एक मुख्य वजह ये भी है। और हो भी क्यों नहीं वित्त मंत्रालय या यों कहें कि देश के राजस्व को एसईजेड में लगने वाले हर एक रुपए पर एक रुपए साठ पैसे का नुकसान हो रहा है। आरबीआई ने भी एसईजेड को रियल्टी से अलग दर्जा देने से मना कर दिया है।


अगर अब भी सरकार एसईजेड की पॉलिसी में आधारभूत बदलाव नहीं करती है। तो देश के सैकड़ों एकड़ उपजाऊ जमीन एसईजेड की भेंट चढ़ जाएंगे। बिहार जैसे बीमारू राज्य विकासशील भी नहीं बन पाएंगे। अमीर राज्य और अमीर होते जाएंगे। विस्थापितों की फौज जमा हो जाएगी। और एसईजेड कुछ लोगों और कंपनियों के लिए एक SPECIAL ENJOYMENT ZONE बनकर रह जाएगा।