शुक्रवार, 21 सितंबर 2007

विदेशी गेहूं और सरकारी घुन

सरकार को साढ़े आठ रु गेहूं बेचने से तो अच्छा है गाय को खिलाना। एक लीटर भी दूध ज्यादा हुआ तो डबल मुनाफा!


जब हम पिज्जा,बर्गर खा ही रहे हैं। विदेशी कपड़े और जूते पहन ही रहे हैं। तो विदेशी गेहूं से क्यों है परहेज? ये सवाल करोड़ों की है। क्योंकि सरकार ये गेहूं,पिज्जा-बर्गर खाने वाले और ब्रांडेड कपड़े पहनने वालों के लिए नहीं गरीब लोगों के लिए खरीद रही है। कह रही है फूड सिक्योरिटी उसका धर्म है। लेकिन सरकार अगर गरीबों को विदेशी गेहूं खिलाना ही चाहती है तो क्यों हो रहा है इसका विरोध। विपक्षी दलों के साथ ही सरकार की सहयोगी वामपंथी पार्टियों ने क्यों फूक दिया है विदेशी गेहूं और सरकार की इस पहल के खिलाफ बिगुल।

विरोध के एक-दो नहीं,कई कारण हैं। पहले तो सरकार घटिया,जानवरों को खिलाने वाला, घुन लगा हुआ गेहूं खरीदने वाली थी। लेकिन तेज विरोध के बाद उस टेंडर को रद्द करना पड़ा। फिर सरकार ने अपना रुख महंगे गेहूं की ओर कर दिया। और अब 16 रुपए प्रति किलो पर गेहूं खरीदने के लिए अमादा है। जबकि देश में इसबार गेहूं की बम्पर पैदाबार हुई है। यानी करीब 7 करोड़ 50 लाख टन जो कि पिछले साल के मुकाबले 3.1 परसेंट ज्यादा है। और अगर CMIE यानी सेंटर फॉर मॉनिटरिंग इंडिया इकॉनोमी की मानें तो अगले कारोबारी साल में इस साल के मुकाबले 4.1 परसेंट ज्यादा पैदाबार की उम्मीद है।

कृषि मंत्री कहते हैं कि विदेशों में गेहूं की इसबार कम पैदाबार हुई है। और हमारे देश की तरह ही कई देश गेहूं के एक्सपोर्ट पर पाबंदी लगा चुके है या लगाने को तैयार हैं। लेकिन इससे डर कर क्या हमें MSP यानी मिनिमम सपोर्ट प्राइस(8.50 रु/किलो) से करीब 88 परसेंट ऊंची कीमत (16 रु/किलो) पर गेहूं खरीद लेना चाहिए?! बिल्कुल नहीं, क्योंकि जो करोड़ों रुपए हम विदेशी कंपनियों को दे रहे हैं जरूरत पड़ने पर उसकी एक चौथाई से भी कम रकम पर हम गेहूं की खरीदारी कर सकते हैं। बहरहाल इसकी जरूरत ही नहीं होगी। क्योंकि साढ़े सात करोड़ टन की उपज में से केवल 6 करोड़ 20 लाख टन गेहूं से ही देश का पेट भर जाएगा। और अगर नहीं भरेगा तो सरकार कुछ पैसे खर्च कर कालाबाजारी के लिए गोदाम में पड़ी गेहूं को निकलबा सकती है।

क्योंकि कालाबाजारी कराने में भी तो सरकार का ही हाथ होता है। अगर सरकार इसका ढ़िढोरा नहीं पीटे की इस साल कितने लाख टन गेहूं आयात करेगी, तो गेहूं की कालाबाजारी की जुर्रत कोई नहीं करेगा। सरकार को किसी भी इमर्जेंसी के लिए 40 लाख गेहूं बफर स्टॉक में रखना होता है। इसे चाहती तो सरकार भारतीय किसानों से खरीद सकती थी। लेकिन नहीं खरीद पायी। क्योंकि किसानों को पैसे देने में उसके हाथ कांपने लगे। और बड़ी मुश्किल से किसानों को 7.5 रुपए से कुछ आगे बढ़कर 8.5 रुपए प्रति किलो का भाव दे पायी। और इस भाव पर 1 करोड़ 10 लाख टन गेहूं खरीद सकी। या कह सकते हैं कि जानबूझकर खरीदी। ताकि बाद में इंपोर्ट के लिए कुछ स्पेस बना रहे।

बेटे,इसबार कुछ दिन और देशी गेहूं से ही काम चलाना होगा। लगता है सरकार विदेशी बाजारों में भाव और चढ़ने के इंतजार में है।

मैं ऐसा इसलिए कह रहा हूं क्योंकि प्राइवेट खरदारों को देश में मनभर गेहूं खरीदने में कोई दिक्कत नहीं आई। और वो भी एमएसपी के आसपास के भाव पर ही और अच्छी क्वालिटी की गेहूं।

राशन की दुकानों के जरिए गरीबों को देने के लिए भी सरकार के पास पर्याप्त गेहूं है। लेकिन इमर्जेंसी के लिए सरकार विदेशों से 5 लाख 11 हजार टन गेहूं 325 डॉलर प्रति टन के भाव से खरीद चुकी है। जबकि भारतीय किसानों को उसने 200 डॉलर प्रति टन का ही भाव दिए हैं। यही नहीं अंतरराष्ट्रीय बाजार में भाव और ऊपर जाने के बाद सरकार अब 8 लाख टन गेहूं 390 डॉलर प्रति टन के भाव से खरीदने वाली है। पर इससे कम में जब विदेशी बाजारों में गेहूं मिल रहे थे तो कई बार सरकार ने टेंडर कैंसिल कर दिए। पता नहीं शायद भाव बढ़ने का इंतजार कर रही होगी सरकार!

भ्रष्टाचार की घुन जब बोफोर्स और दूसरे आर्म्स डील में लग सकती है। तो गेहूं तो उसके लिए काफी उपयुक्त है। पिछले साल भी सरकार पर गेहूं के आयात में दलाली खाने का आरोप लगा था। जब एक पुराने मामले में ये बात सामने आई थी कि ऑस्ट्रेलिया से उसने 142.5 डॉलर प्रति टन के हिसाब से वही गेहूं खरीदा था जो मिश्र को 135 डॉलर प्रति टन को बेचा गया था। इस मामले में ऑस्ट्रेलियन कंपनी AWB ने किसी को 25 लाख डॉलर का दलाली दी थी।

शरद पवार महंगे गेहूं की खरीद के जितने भी तर्क दे रहे हैं। सभी बिना सिर पैर के हैं। शुक्र है कि उन्होंने ये नहीं कहा कि हमारा देश युवाओं का है और युवा जब रोटी खाते हैं तो गिनते नहीं!

सोमवार, 17 सितंबर 2007

रिको ऑटो में मुनाफे की सवारी



कंपनी - रिको ऑटो। सेक्टर - ऑटो पार्ट्स। एक साल का उच्चतम स्तर, 82 रुपए 90 पैसे। एक साल का न्यूतम स्तर 32 रुपए 45 पैसे। आज कीमत 36 रुपए 15 पैसे। यानी आपके पोर्टफोलियो के लिए द मोस्ट वांटेड स्टॉक। रिको ऑटो, देशी और विदेशी ऑटो कंपनियों को इंजन, ट्रांसमिशन, ब्रेकिंग और सस्पेंशन से जुड़े पार्ट्स सप्लाई करती है।

अगर इस कंपनी की ग्रोथ स्टोरी पर नजर डालें तो पता चलता है कि इसकी बिक्री केवल 6 वर्षों में पांच गुना से ज्यादा बढ़ी है। 1999 में बिक्री 3 करोड़ 40 लाख डॉलर थी जो कि 2005 में बढ़कर 15 करोड़ 70 लाख डॉलर पर पहुंच गई। वहीं मुनाफा 14 लाख डॉलर से बढ़कर 81 लाख डॉलर पर पहुंच गया।

रिको ऑटो का सबसे बड़ा कस्टमर हीरो होंडा है। जो कि देश में सबसे ज्यादा टू व्हीलर्स बेचती है। कंपनी कार और कमर्शियल वाहनों के लिए भी पार्ट्स सप्लाई करती है। अमेरिका और यूरोप में कंपनी की अच्छी पहुंच है।

एक समय था जब कंपनी की 60 परसेंट से ज्यादा की कमाई हीरो होंडा से होती थी। और जब हीरो होंडा कि बिक्री कम होती थी तो उसका असर कंपनी पर दिखने लगता था। इससे निजात पाने के लिए कंपनी ने अपना दरवाजा दूसरी कंपनियों के लिए भी खोल दी। आज टू व्हीलर सेग्मेंट में कंपनी की कस्टमर लिस्ट में बजाज, होंडा और सुजुकी का नाम भी शामिल है। यानी अब हीरो होंडा बिके या बजाज पल्सर फयादा रिको ऑटो को जरूर होगा।

पैसेंजर कार सेग्मेंट में कंपनी,मारुति सुजुकी,फोर्ड,जनरल मोटर्स,निसान,वोल्वो जगुआर, टाटा और लैंड रोवर को ऑटो पार्ट्स की सप्लाई करती है। वहीं कमर्शियल गाड़ी बनाने वाली कैटरपिलर्स,पर्किन्स जैसी कई बड़ी कंपनियों के नाम रिको ऑटो के कस्टमर लिस्ट में शामिल है।

इतना सब कुछ होते हुए भी कंपनी के शेयर पिछले कुछ दिनों में धाराशायी हो गए। जिसकी मुख्य वजह है रुपए का मजबूत होना। क्योंकि कंपनी के ज्यादातर ऑर्डर पुराने थे। साथ ही कंपनी पर ब्याज दर की भी मार पड़ी। ब्याज दर बढ़ने से गाड़ियों की बिक्री कम हुई। जिसका असर रिको ऑटो पर पड़ा।

लेकिन अब स्थिति बदल रही है। कंपनी अपना ध्यान यूरोपीय बाजारों पर बढ़ा रही है। ताकि डॉलर की मजबूती की मार से बचा जा सके। साथ ही देश में फेस्टिवल सीजन शुरू हो चुका है जिससे की गाड़ियों की बिक्री में तेजी आने का आनुमान है। कंपनी ने इसी साल दो ज्वाइंट वेंचर किए हैं। पहला ज्वांट वेंचर हाइड्रोलिक ब्रेक बनाने के लिए कांटिनेंटल ऑटोमोटिव सिस्टम के साथ तो दूसरा दोपहिया वाहनों के अल्यूमीनियम एलॉय व्हील बनाने के लिए जिनफेई चाइना के साथ।

रुपया अगर 2009 तक एक डॉलर के मुकाबले 32 रुपए पर भी पहुंच जाए। ऐसा कई अंतरराष्ट्रीय रिसर्च फर्म और बैंकों का मानना है। फिर भी रिको ऑटो को गम नहीं है। क्योंकि इस कंपनी में सस्ते ऑटो पार्ट्स बनाने की क्षमता है। और आने वाले दिनों में सस्ती कार (जो भी हो एक लाख या सवा लाख वाली) की जो आंधी देश में चलेगी। उसमें इस कंपनी की अहम भागीदारी होगी।


डिस्क्लेमर: रिको ऑटो के कुछ शेयर मैं भी होल्ड करता हूं।

रविवार, 2 सितंबर 2007

एनर्जेटिक है पावर ग्रिड कॉर्पोरेशन का IPO


भारत की सबसे बड़ी पावर ट्रांसमिशन कंपनी पॉवर ग्रिड कॉर्पोरेशन(पीजीसी) बाजार में उतरने को तैयार है। इसका आईपीओ 10 सितंबर को खुलेगा और 13 सितंबर को बंद होगा। निवेशकों के लिए प्राइमरी मार्केट में निवेश का ये सुनहरा अवसर है। क्योंकि भारतीय ट्रांसमिशन कारोबार में इस सरकारी कंपनी का एकाधिकार है। देश में बनाई जाने वाली कुल बिजली के एक तिहाई हिस्से का ट्रांसमिशन पीजीसी के जरिए ही होता है।

क्वालिटी के लिए आईएसओ 9001 से सम्मानित पावर ग्रिड कॉर्पोरेशन का दायरा 61875 हजार सर्किट किलोमीटर तक फैला है। जिसकी वजह से ये दुनिया के 6 सबसे बड़े पावर ट्रांसमिशन कंपनियों में शामिल है। एक क्षेत्र से दूसरे क्षेत्र एक राज्य से दूसरे राज्य तक बिजली पहुंचाने वाली ये कंपनी आईपीओ से जुटाई गई 2984 करोड़ रुपए को 15 नए ट्रांसमिशन प्रोजेक्ट में लगाएगी।

कंपनी अपनी करीब 14 परसेंट शेयरों के लिए आईपीओ ला रही है। आईपीओ में 10 रुपए की फेस वैल्यू वाले प्रति शेयर के लिए 44 से 52 रुपए का प्राइस बैंड तय किया है। जो कि इस मिनी रत्न कंपनी के लिए काफी लुभावना लग रहा है।

ट्रांसमिशन कारोबार के लिए कंपनी ने टाटा पावर, जेपी ग्रुप, टोरेंट पावर जैसे कई कंपनियों के साथ ज्वाइंट वेंचर भी किया है। या यों कहें कि इन छोटे-छोटे ज्वाइंट वेंचर के जरिए पीजीसी प्राइवेट कंपनियों को ट्रांसमिशन का कारोबार सिखा रही हैं।

विकासशील से विकसित होने के लिए विश्व में पावरफुल स्थान पाने के लिए देश में पावर का होना काफी जरूरी है। जिसका फिलहाल काफी आभाव है। और ये बात सरकार भी मानती है। तभी तो वामपंथी साथियों के तमाम उपद्रव और विरोधों के बावजूद भारत-अमेरिका परमाणु समझौता लागू कराने पर अड़ी है। अगर ये समझौता होता है तो इसकी बिजली साथ ही आने वाली तमाम अल्ट्रा मेगा पावर प्रोजेक्ट की बिजली को ढ़ोने का काम पावर ग्रिड कॉर्पोरेशन को ही मिलने वाला है। यानी पावर भले ही हवा से बने, परमाणु से बने या सूर्य की रोशनी से, उसको एक राज्य से दूसरे राज्य तक पहुंचाने का ज्यादातर जिम्मा इसी कंपनी को मिलेगा।

पीजीसी अपना विस्तार टेलीकॉम और कंसल्टेंसी क्षेत्र में बड़े पैमाने पर करने का मन बना चुकी है। फिलहाल इन दो क्षेत्रों का रेवेन्यू कंपनी के कुल रेवेन्यू का 2 और 2.6 परसेंट है। यानी भले ही ग्रिड फेल होने से कुछ समय के लिए बिजली चली जाए या ट्रांसमिशन और वितरण में कुल उत्पादन का करीब 40 परसेंट बिजली गुल हो जाए पीजीसी में निवेश से होने वाले फायदे की चमक हमेशा आपके लिए यादगार रहेगी।