गुरुवार, 31 मई 2012

आईसीयू में भारतीय अर्थव्यवस्था


भारत का जीडीपी विकास दर करीब 10 सालों के अपने निचले स्तर पर पहुंच चुकी है। औद्योगिक विकास दर लुढ़ककर माइनस में पहुंच गई है। व्यापार घाटा महीने-दर-महीने बढ़ता ही जा रहा है। रिटेल महंगाई दर 10 के पार पहुंच गई है। अर्थशास्त्री प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह के कार्यकाल में भारत की अर्थव्यवस्था पूरी तरह चरमरा चुकी है। अर्थशास्त्री प्रधानमंत्री के होते हुए भी ऐसा लगने लगा है कि भारत की आर्थव्यवस्था आईसीयू में पहुंच चुकी है। अर्थव्यवस्था से जुड़ी कोई भी तथ्य या आंकड़े ऐसे नहीं हैं जिसे सुनकर हमें खुशी हो या जिसपर हम गर्व कर सकें। 
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  •   वित्त वर्ष 2011-2012 की चौथी तिमाही में जीडीपी विकास दर गिरकर 5.3 फीसदी पर पहुंच गई। जो कि करीब 10 सालों में सबसे कम है। इससे पहले 2003 में जनवरी से मार्च की तिमाही में जीडीपी विकास दर 3.6 फीसदी पर लुढ़क गई थी।
  •  साल 2010-11 में जीडीपी विकास दर 8.3 फीसदी थी जो कि 2011-12 में घटकर 6.5 फीसदी पर पहुंच गई।   जिस तेजी से देश में आयात बढ़ रहा है उस तेजी से निर्यात नहीं बढ़ रहा है। इस वजह से भारत का व्यापार घाटा बढ़ता जा रहा है। पिछले वित्त वर्ष में व्यापार घाटा 185 अरब डॉलर के अपने रिकॉर्ड स्तर पर जा पहुंचा है।
  • औद्योगिक विकास में भी सुस्ती छाई हुई है। अप्रैल 2011 में औद्योगिक विकास दर 5.3 फीसदी थी। जो कि मार्च 2012 में घटकर माइनस 3.5 फीसदी पर पहुंच गई।
  •  शेयर बाजार से विदेशी संस्थागत निवेश तेजी से पैसे निकाल रहे हैं। इसका असर शेयर बाजार में देखा जा रहा है।  अप्रैल 2011 को सेंसेक्स 19 हजार के करीब था जो कि मई 2012 में लुढ़ककर 16 हजार के करीब जा पहुंचा है।
  •  प्रत्यक्ष विदेशी निवेश में भी भारी कमी आई है। अप्रैल 2011 में 3.1 अरब डॉलर का एफडीआई देश में आया। जबकि मार्च 2012 में एफडीआई घटकर महज 1.6 अरब डॉलर रह गया।
  •  महंगाई लगातार बढ़ती जा रही है। अप्रैल में रिटेल महंगाई दर बढ़कर 10.4 फीसदी पर पहुंच चुकी है।
  • केवल इस साल रुपए की कीमत में 14 फीसदी की गिरावट दर्ज की गई। एक अमेरिकी डॉलर के मुकाबले रुपए का भाव 56 रुपए 50 पैसे के अपने रिकॉर्ड निचले स्तर पर जा पहुंचा है।
  • देश का राजकोषीय घाटा पिछले वित्त वर्ष में 92.53 अरब डॉलर पर पहुंचा गया है। जोकि देश के जीडीपी का 5.9 फीसदी है।  
इन आंकड़ों को सरकार नकार नहीं सकती क्योंकि ये आंकड़े खुद सरकार ने जारी किए हैं। अर्थव्यवस्था अपनी आखिरी सांसे गिन रही है। लेकिन अर्थव्यवस्था को इस बुरे दौर में पहुंचाने का ठीकरा सरकार विदेशी परिस्थितियों पर फोड़ दे रही है। अगर दो-चार तिमाही और ऐसा चलता रहा तो देश में अफरा-तफरी का माहौल पैदा हो सकता है। 




एक देश एक मोबाइल नंबर


रोमिंग चार्ज से जल्द ही छुटकारा मिलने वाला है। यानी बार बार नंबर बदलने की परेशानी हमेशा के लिए खत्म होने वाली है। कैबिनेट ने नई टेलिकॉम पॉलिसी को मंजूरी दे दी है। तेरह साल बाद नई टेलीकॉम पॉलिसी बनाई गई है।

महंगाई के इस दौर में थोड़ी सी राहत मोबाइल ग्राहकों को मिलने वाली है। खासकर उन ग्राहकों को जो ज्यादातर रोमिंग पर रहते हैं। नई टेलिकॉम पॉलिसी से रोमिंग की दरें पूरी तरह खत्म जाएंगी। इससे शहर बदलने पर भी नंबर बदलने की ज़रूरत नहीं होगी। यानी जल्द ही एक देश एक नंबर का सपना सच होने वाला है। साथ ही पूरे देश में मोबाइल नंबर पोर्टेबिलिटी को भी मंजूरी दी गई है।

अब 1999 की नेशनल टेलीकॉम पॉलिसी की जगह 2012 की नई टेलिकॉम पॉलिसी लेगी। नई टेलिकॉम पॉलिसी के जरिए टेलिकॉम विभाग यूनिफाइड लाइसेंसिंग की मंजूरी भी सरकार से लेगा। टेलिकॉम पॉलिसी में स्पेक्ट्रम शेयरिंग का प्रस्ताव भी है। जानकारों का मानना है कि नई टेलीकॉम पॉलिसी में लाइसेंसों के लिए कई कैटेगरी का बंदोवस्त किया गया है। इस पॉलिसी में उपकरण बनाने वाली घरेलू कंपनियों को कुछ छूट का प्रस्ताव है। इसके साथ इस पॉलिसी में सर्विस और टैरिफ में पारदर्शिता और जवाबदेही तय की गई है। साथ ग्रामीण क्षेत्रों में विकास टेलीकॉम और ब्रॉडबैंड के विस्तार की योजना है। सरकार इस पॉलिसी के जरिए साल के आखिर तक सस्ती ब्रॉडबैंड सर्विस महैया कराएगी।

शनिवार, 26 मई 2012

देश में आर्थिक अनिश्चितता का माहौल


देश की आर्थिक स्थिति बहुत की नाजुक दौर से गुजर रही है। सरकार किसी गंभीर स्थिति से बचने के लिए आनन फानन में फैसले ले रही है। पेट्रोल के बाद सरकार कुछ और गंभीर फैसले ले सकती है। जिसका खामियाजा आम लोगों को भुगतने के लिए तैयार रहना होगा।

लाखों करोड़ रुपए के घोटाले और वेलफेयर स्कीम्स के नाम पर अरबों रुपए का बंदरबांट और खरबों रुपए की ब्लैक मनी ने यूपीए टू सरकार की कमर तोड़ कर रख दी है। ऐसे में सरकार खुद को संभालने के लिए आम लोगों की कमर तोड़ने में जुट गई है। आने वाला दिन और भयावह होने वाला है। क्योंकि देश की आर्थिक स्थिति चरमराने लगी है।

जीडीपी की बात करें तो साल दर साल इसमें कमी आ रही है। साल 2010-11 में जीडीपी विकास दर 8.3 फीसदी थी जो कि 2011-12 में घटकर 6.9 फीसदी पर पहुंच गई। और 2012 में जीडीपी विकास दर के लुढककर 7 फीसदी के करीब रहने का अनुमान है।

एक्सपोर्ट लागातर कम हो रहा है। जबकि आयात बढ़ता ही जा रहा है। इससे व्यापार घाटा माइनस में पहुंच चुका है। अप्रैल 2011 में औद्योगिक विकास दर 5.3 फीसदी थी। जो कि मार्च 2012 में घटकर माइनस 3.5 फीसदी पर पहुंच गई।
शेयर बाजार से विदेशी संस्थागत निवेश तेजी से पैसे निकाल रहे हैं। इसका असर शेयर बाजार में देखा जा रहा है। 1 अप्रैल 2011 को सेंसेक्स 19420 पर था जो कि 25 मई 2012 को लुढ़ककर 16218 पर पहुंच गया।
प्रत्यक्ष विदेशी निवेश में भी भारी कमी आई है। अप्रैल 2011 में 3.1 अरब डॉलर का एफडीआई देश में आया। जबकि मार्च 2012 में एफडीआई घटकर महज 1.6 अरब डॉलर रह गया।

रिटेल महंगाई दर दहाई अंकों में पहुंच चुकी है। खाने पीने के सामान दिन ब दिन महंगे होते जा रहे हैं। रोजगार के अवसर कम होते जा रहे हैं। सैलरी में इजाफा नहीं हो पा रहा है। इस आर्थिक अनिश्चितता के दौर में देश की जनता की नींदे उड़ी हुई हैं। लेकिन सरकार देश की जनता की सहायता करने की बजाए भ्रष्टाचार के मामलों की लीपापोती अपनी गद्दी बचाने में लगी है।

तेल कंपनियां मस्त, लोग पस्त


भारतीय तेल मार्केटिंग कंपनियां देश ही नहीं दुनिया की दिग्गज कंपनियों में शुमार हैं। और इनके बैलेंसशीट में घाटे का कहीं नामो निशान नहीं है। लेकिन ये कंपनियां घाटे का रोना रोकर देश की जनता को गुमराह कर रहे हैं और उनके माथे पर महंगे पेट्रोल का ठीकरा फोड़ रहे हैं।

भले ही महंगे पेट्रोल की वजह से आम लोग त्राहिमाम कर रहे हों लेकिन सरकारी तेल मार्केटिंग कंपनियों की स्थिति और मजबूत होती जा रही है। भारत के 90  फीसदी तेल कारोबार पर सरकारी कंपनियों का नियंत्रण है। ये कंपनियां आम लोगों को मूर्ख बनाकर उनसे पैसे ऐंठती हैं। क्योंकि असल में भारत में तेल की रिटेल कीमत और अंतरराष्ट्रीय  बाजारों में कच्चे तेल की कीमतों में हमेशा आसमान ज़मीन का अंतर होता है। लेकिन जानबूझकर ये तेल मार्केटिंग कंपनियां ज्यादा महंगा कच्चा तेल का रोना रोकर कीमतें बढ़ाती हैं। पूरे साल कंपनियां घाटा-घाटा चिल्लाकर अपने पक्ष में माहौल तैयार करती हैं और समय देखकर कीमतें बढ़ा देती हैं। चूंकि ये कंपनियां सरकारी है इसीलिए सरकार का भी इन कंपनियों के साथ सहयोग होता है। तभी तो इतना घाटे का रोना रोने वाली कंपनियों के जब वार्षिक नतीजे आते हैं तो उनके बैलेंसशीट पर घाटे के बदले प्रॉफिट दिखाई देते हैं।

आईओसी को साल 2009 में 7210 करोड़ रुपए का कुल प्रॉफिट हुआ है। साल 2010 में 17333 करोड़ रुपए का लाभ और साल 2011 में 13642 करोड़ रुपए का लाभ हुआ है।
भारत पेट्रोलियम को साल 2009 में 2079 करोड़ रुपए का प्रॉफिट हुआ है। साल 2010 में 3608 करोड़ रुपए और साल 2011 में 4068 करोड़ रुपए का प्रॉफिट हुआ है।

ऐसा ही हाल हिंदुस्तान पेट्रोलियम का भी है। एचपीसीएल को साल 2009 में 1693 करोड़, साल 2010 में 3285 करोड़ और साल 2011 में 3768 करोड़ रुपए का प्रॉफिट हुआ है।
तभी तो ये कंपनियां दुनिया की 500 दिग्गज फॉर्च्यून कंनपियों में शुमार हैं।

दुनिया की दिग्गज कंपनियों की लिस्ट में इंडियन ऑयल कॉरपोरेशन का स्थान  98 वां है।  भारत पेट्रोलियम दुनिया की दिग्गज कंपनियो की लिस्ट में आज भी 271 वें नबंर पर है। हिंदुस्तान पेट्रोलियम का फॉर्च्यून 500 कंपनियों की लिस्ट में 335 स्थान पर काबिज हैं। 
दरअसल भारत में रोजाना 34 लाख बैरल तेल की खपत होती है और इसमें से 27 लाख बैरल तेल आयात किया जाता है। एक बैरल में 159 लीटर कच्चा तेल आता है। आयात किए गए कच्चे तेल को साफ करने के लिए रिफाइनरी में भेज दिया जाता है। तेल विपणन कंपनियों के कच्चा तेल खरीदने के समय और रिफाइनरी से ग्राहकों को मिलने वाले तेल के बीच की अवधि में तेल की कीमतें ऊपर-नीचे होती हैं। यहां कंपनियां अपना फायदा उठाती हैं। फिलहाल अंतरराष्ट्रीय बाजार में कच्चा तेल 100  डॉलर प्रति बैरल है और अंडररिकवरी हमेशा मौजूदा कीमतों के आधार पर तय की जाती है। लेकिन कंपनियां 120 डॉलर प्रति बैरल के पुराने भाव से अंडररिकवरी की गणना करके भारी-भरकम आंकड़ों से जनता को छलती है। 

कंपनियों की रौनक साल दर साल बढ़ती जा रही हैं लेकिन आम लोगों के चेहरे साल दर साल पीले पड़ते जा रहे हैं। उनका बजट बिगड़ता जा रहा है। उनके सपने कुंद होते जा रहे हैं।


गुरुवार, 24 मई 2012

टैक्स ना हो तो आधे भाव पर पेट्रोल


अंतरराष्ट्रीय बाजार में कच्चे तेल और रुपए की कमजोरी का नाम लेकर सरकार पेट्रोल की कीमतें बढ़ाती जा रही हैं। लेकिन इसकी असली सच्चाई तो कुछ और ही है। केंद्र और राज्य सरकारें पेट्रोल पर जो टैक्स वसूलती हैं दरअसल उसकी वजह से पेट्रोल की कीमतों में इजाफा हुआ है। 

केंद्र और राज्य सरकारें अपनी झोली भरने में लगे हैं। इन सरकारों को आम लोगों की कोई चिंता नहीं है। अगर ये सरकारें टैक्स पूरी तरह से खत्म कर दें तो आज से ही आप केवल 35 रुपए प्रति लीटर में पेट्रोल खरीद सकेंगे।

जिस कीमत पर हम पेट्रोल खरीदते हैं  उसका करीब 48 फीसदी हिस्सा ही सही मायने में पेट्रोल की कीमत होनी चाहिए। और इससे ज्यादा जो पैसे वसूले जाते हैं वो केंद्र और राज्य सरकार की जेबों में टैक्स के रूप में चले जाते हैं। पेट्रोल पर करीब 35 फीसदी एक्साइज ड्यूटी, 15 फीसदी सेल्स टैक्स, 2 फीसदी कस्टम ड्यूटी लगाया जाता है। सेल्स टैक्स को कई राज्यों में वैट के रूप में भी वसूला जाता है। 

अगर दिल्ली में बगैर टैक्स के पेट्रोल बेची जाएगी तो उसका बेस प्राइस होगी 35 रुपए प्रति लीटर। जबकि इसे 73.14 रुपए प्रति लीटर बेची जा रही है। तेल के बेस प्राइस में कच्चे तेल की कीमत, प्रॉसेसिंग चार्ज और कच्चे तेल को शोधित करने वाली रिफाइनरियों का चार्ज शामिल होता है। 

बुधवार, 23 मई 2012

पेट्रोल की कीमतों में 7.5 रुपए का इजाफा


महंगाई से लोगों को फिलहाल निजात नहीं मिलने वाली है। सरकार ने पेट्रोल की कीमतों में प्रति लीटर साढ़े सात रुपए इजाफा करने का ऐलान किया है। नई दरें आज रात से लागू होंगे।

आखिरकार सरकार ने पेट्रोल की कीमतों में इजाफा करने का ऐलान कर ही दिया है। और ये इजाफा एक या दो रुपए का नहीं बल्कि साढ़े सात रुपए का किया गया है। तेल मार्केटिंग कंपनियों को राहत पहुंचाने के लिए सरकार ने ये कदम उठाया है। हालांकि सरकार के इस कदम से पहले से परेशान आम लोगों की परेशानी और बढ़ गई है। तेल की कीमतों को बढ़ाने के लिए सरकार कितनी बेचैन थी कि संसद के बजट सत्र खत्म होते ही इसका ऐलान कर दिया।

अब  दिल्ली में प्रति लीटर पेट्रोल की कीमत 65.64 रुपए से बढ़कर  73.14 रुपए हो जाएगी। मुबंई में एक लीटर पेट्रोल की कीमत 70.66  रुपए से बढ़कर 78.16रुपए पर पहुंच गयी है। जबकि कोलकाता में पेट्रोल की कीमत 70.03 रुपए से बढ़कर 77.53 रुपए हो गई है। और चेन्नई में पेट्रोल के भाव  69.55रुपए के बढ़कर 77.05 रुपए पर पहुंचा गया है।

तेल मार्केटिंक कंपनियों का घाटा बढ़ने की पीछे रुपए का कमजोर होना भी एक बड़ी वजह है। पेट्रोलियम मंत्री जयपाल रेड्डी ने कहा है कि रुपए के 100 पैसे कमजोर होने से भारतीय तेल मार्केटिंग कंपनियों को 8000 करोड़ रुपए का नुकसान उठाना पड़ता है। यानी कि केवल एक साल में रुपए की कमजोरी की वजह से तेल मार्केटिंग कंपनियों को 80000 करोड़ रुपए का नुकसान उठाना पड़ा है। क्योंकि पिछले साल डॉलर के मुकाबले रुपया 46 पर था जो कि गिरकर 56 के पार पहुंचा चुका है। साथ ही अंतरराट्रीय बाजारों में कच्चे तेल की कीमत 100 डॉलर प्रति बैरल से ऊपर पहुंच चुकी है। ऐसे में सरकार को आनन फानन में पेट्रोल की कीमतें बढ़ाने के लिए मजबूर होना पड़ा है।

हालांकि पहले से ही यूपीए टू को आंख दिखा रही और तीसरी सालगिरह पर में नदारद सहयोगी पार्टी इस फैसले को वापस लेने पर मजबूर करती है या इसमें कुछ कटौती करा पाती है ये देखने वाली बात होगी।

रुपए के चक्कर में सोना गिरबी की फिर नौबत?


रुपए का लगातार लुढ़कने से भारत सरकार पर संकट के बादल मंडराने लगा है। भारत का विदेशी मुद्रा का बहुत सिमित भंडार है। ऐसे में रुपए को गिरने से बचाने के लिए सरकार अगर इस भंडार का इस्तेमाल करती है तो भारत को फिर से सोना गिरबी रखने की नौबत आ जाएगी।

सरकार की तमाम कोशिशों के बावजूद रुपए का टूटना जारी है। सरकार और आरबीआई के पास रुपए को गिरने से बचाने के लिए बहुत सीमित उपाय बचे हैं। आरबीआई पहले ही निर्यातकों से अपने अकाउंट में जमा कुल डॉलर में से आधा बेचने का आदेश दे चुका है। लेकिन इसके बावजूद रुपए में गिरावट नहीं थम रही है। सरकार ने एनआरआई के डिपॉजिट रकम पर ब्याज बढ़ा दी। ताकि एनआरआई ज्यादा डॉलर या विदेशी मुद्रा भारत भेज पाएं। लेकिन इससे भी रुपए की गिरावट रुक नहीं पा रही है। ऐसे में सरकार विदेशी मुद्रा भंडार से डॉलर बाजार में छोड़ सकती है।

11 मई 2012 तक भारत के पास 291 अरब 80 करोड़ डॉलर का ही विदेशी मुद्रा भंडार बचा है। जोकि  4 नवंबर 2010 तक 300 अरब 21 करोड़ डॉलर था।

पेट्रोलियम मंत्री जयपाल रेड्डी ने कहा है कि रुपए के 100 पैसे कमजोर होने से भारतीय तेल मार्केटिंग कंपनियों को 8000 करोड़ रुपए का नुकसान उठाना पड़ता है। यानी कि केवल एक साल में रुपए की कमजोरी की वजह से तेल मार्केटिंग कंपनियों को 80000 करोड़ रुपए का नुकसान उठाना पड़ा है। क्योंकि पिछले साल डॉलर के मुकाबले रुपया 46 पर था जो कि गिरकर 56 के पार पहुंचा चुका है। यानी कि हमारे पास जो विदेशी मुद्रा भंडार को उससे हम कुछ महीनों तक ही तेल खरीद पाएंगे उसके बाद कर्ज के ब्याज के तौर पर हमें फिर से सोने की गिरबी रखने को मजबूर होना होगा।

मंगलवार, 22 मई 2012

महंगाई बढ़ाएगी रुपए की कमज़ोरी


रुपए का टूटना लगातार जारी है। रुपए की कीमत अबतक के अपने सबसे निचले स्तर पर पहुंच गई है। दुनियाभर के बाजारों में अमेरिकी डॉलर की लगातार बढ़ती मांग की वजह से रुपए में गिरावट दर्ज की जा रही है। आज रुपए की कीमत में 39 पैसे की गिरावट देखी गई। जिससे दिनभर के कारोबार के दौरान एक अमेरिकी डॉलर का भाव लुढ़ककर 55 रुपए 42 पैसे पर जा पहुंचा।

डॉलर के मुकाबले रुपए में कमजोरी से भारत का आयात महंगा होता जा रहा है। केवल 1 रुपए की कमजोरी से तेल मार्केटिंग कंपनियों को साल में हाजारों करोड़ रुपए का नुकसान हो जाता है। आरबीआई ने रुपए की कमजोरी रोकने के लिए एक्सपोर्टरों को डॉलर बेचने का आदेश दिया है। हालांकि इसके बाद भी रुपए में गिरावट नहीं रुक रही है। रुपए का गिरना बदस्तूर जारी है। तमाम कोशिशों के बावजूद रुपए की गिरावट नहीं रुक पा रही है। ऐसे में पहले से ही महंगाई की मार से परेशान लोगों को कई और चीजें महंगी कीमतों पर खरीदने को मजबूर होना होगा।

रुपए की कमजोरी आम लोगों के पॉकेट पर भारी पड़ने वाली है। भले ही आपको डॉलर से कोई लेना देना नहीं हो और आप रुपए में खरीदारी करते हों। लेकिन अगली बार जब आप बाजार खरीदारी के लिए निकलेंगे को आपको कई सामानों के लिए ज्यादा पैसे खर्च करने होंगे।

खाने के तेल के लिए आपको ज्यादा पैसे खर्च करने होंगे।
टीवी, फ्रीज, एसी महंगे हो जाएंगे।
कार महंगी हो जाएगी।
डायमंड से बने गहनों के लिए ज्यादा पैसे खर्च करने होंगे।
कच्चे तेल की कीमत नहीं बढ़ने के बावजूद तेल मार्केटिंग कंपनियों को ज्यादा खर्च करना होगा।
आईओसी को 1 रुपए की गिरावट से 10 लाख डॉलर हर दिन ज्यादा देना होगा।
तेल मार्केटिंग कंपनियों का नुकसान बढ़ेगा तो पेट्रोल और डीज़ल की कीमतें ज्यादा बढ़ेंगी।
विदेशों में छुट्टी मनाना महंगी हो जाएगी।
विदेशों में पढ़ाई महंगी होगी।

यानी की रुपए के कमजोर होने से भारत के ज्यादातर लोगों को नुकसान होगा। अगर किसी को फायदा होगा तो वो हैं एक्सपोर्टर और आईटी कंपनियां। क्योंकि इनको अपने प्रोडक्ट और सर्विस के लिए डॉलर में कमाई होती है।

बुधवार, 16 मई 2012

16k नीचे सेंसेक्स, रिकॉर्ड लो रुपया


भारतीय शेयर बाजार में आज जबरदस्त बिकवाली देखने को मिली। साथ ही रुपया अब तक के अपने निचले स्तर पर जा पहुंचा। महंगाई सातवें आसमान पर है तो विकास दर में लगातार गिरावट देखी जा रही है। यानी एक भी संकेत ऐसे नहीं हैं जिसे देखकर ये माना जाए की भारतीय अर्थव्यवस्था खतरे से बाहर है।

भारतीय अर्थव्यवस्था पर खतरे के बादल मंडराने लगे हैं। अर्थव्यवस्था के हित में कुछ भी सही संकेत नहीं मिल पा रहे हैं। अर्थव्यवस्था का आईना समझे जाने वाले बाजार आज ताश के पत्तों की तरह भरभरा कर गिर पड़े।सेंसेक्स 298 अंकों की भारी गिरावट के साथ 16030 पर बंद हुआ। जबकि निफ्टी 84 अंक लुढ़ककर 4858 पर बंद हुआ।वित्त मंत्री प्रणब मुखर्जी ने इस गिरावट को ज्यादा तबज्जो नहीं दिया। और इस गिरावट को एशियाई बाजारों से जोड़ दिया।

एक के बाद एक यूरोपीय देशों के कर्ज संकट में फंसने की वजह से दुनियाभर के बाजारों में अनिश्चितता का माहौल है। ग्रीस का कर्ज संकट इतना बढ़ चुका है कि अब इसे यूरोपीय यूनियन के सदस्य बने रहने के लिए जद्दोज़हद करनी पड़ रही है। और इसका असर ना केवल यूरोपीय बाजारो में दिख रहा है बल्कि भारत और दूसरे एशियाई देश भी इससे अछूते नहीं रह सकते।

दुनियाभर में अमेरिकी डॉलर की मांग बढ़ने से रुपए की स्थिति दिन ब दिन नजुक होती जा रही है। दिनभर के कारोबार के दौरान रुपए की कीमतों में 63 पैसे की गिरावट दर्ज की गई। जिससे 1 अमेरिकी डॉलर के मुकाबले रुपए का भाव लुढ़ककर 54 रुपए 43 पैसे पर जा पहुंचा है। जो कि अबतक का रिकॉर्ड निचला स्तर है। यही नहीं भारत का व्यापार घाटा लगातार बढ़ता जा रहा है। साथ ही औद्योगिक विकास दर निगेटिव में पहुंच चुकी है। महंगाई दर अनुमान से अधिक तेजी से बढ़ रही है। यानी कि भारतीय अर्थव्यवस्था के लिए कुछ भी सकारात्म नहीं हो पा रहा है। ऐसे में सरकार को समय रहते जगने की ज़रूरत है। नहीं तो देश को इसके दूरगामी परिणाम भुगतने पड़ सकते हैं।

मंदासुर की चपेट में यूरोप



यूरोपीय देशों के आर्थिक हालात दिन ब दिन बदतर होते जा रहे हैं। यूरोप के करीब दस देश इस समय आर्थिक मंदी की गिरफ्त में हैं। जिसका असर देश यूरोप सहित दुनिया के कई देशों में देखने को मिल रहा है।

यूरोप में मंदासुर ने अपना तांडव मचा रखा है। मंदी की चपेट में यूरोप के करीब 10 देश इस समय कराह रहे हैं। इन देशों की अर्थव्यवस्था में डबल डिप देखने को मिला है। डबल डिप का मतलब है लगातार दो तिमाही में नकारात्मक बढ़ोतरी। मंदी की मार से प्रभावित होने वाले देश हैं इटली, स्पेन, बेल्जियम, आयरलैंड, ग्रीस, स्लोवानिया, ब्रिटेन, डेनमार्क और चेक गणराज्य। मंदी की वजह से इन देशों में बेरोजगारी के डरावने आंकड़े सामने आ रहे हैं।

ग्रीस और स्पेन में 25 वर्ष तक की आयु के 51 फीसदी युवा बेरोजगार हैं। जबकि इटली और पुर्तगाल में युवा बेरोजगारों की संख्या करीब 36 फीसदी है। आयरलैंड में 30 फीसदी बेरोजगारी है। जबकि फ्रांस में 20 फीसदी से ज्यादा लोग बेरोजगारी की मार सहने के मजबूर हैं।

मंदी की वजह से कई देशों की सत्ताशीन सरकारें गिर चुकी हैं। फ्रांस के पूर्व राष्ट्रपति निकोलस सरकोजी यूरोप में पिछले कुछ वर्षों में सत्ता गंवाने वाले नौवें शासन-प्रमुख हैं। फ्रांस से पहले ब्रिटेन, इटली, ग्रीस, स्पेन, डेनमार्क, लातविया, आयरलैंड और स्विट्जरलैंड में सत्ता में बैठे लोगों की ऐसी ही गत बन चुकी है। जर्मनी की चांसलर एंगेला मर्केल की पार्टी को भी जर्मन प्रांत श्लेस्विग होल्स्टीन में काफी कम प्रतिशत में वोट मिला है। यूरोपी में लगातार फैल रहे मंदी की आग को नहीं रोका गया तो इसकी आग दुनिया के कई देशों को अपनी चपेट में ले लेगा और इससे भारत भी अछूता नहीं रह सकता है। 

गुरुवार, 3 मई 2012

चीनी एक्सपोर्ट से शरद पवार को फायदा

आखिरकार शरद पवार ने राष्ट्रपति चुनाव से ठीक पहले चीनी निर्यात पर केंद्र सरकार से अपनी बात मनबा ही लिया। गठबंधन की राजनीति में इस तरह की मांग आम है। अगर सरकार को अपना कार्यकाल पूरा करना है तो सहयोगी दलों की बेतुकी मांगों को मानना उनकी मजबूरी बन जाती है। और इसका खामियाजा पूरे देश को भुगतना पड़ता है।


किसानों के हितों की बात करते हुए शरद पवार केंद्र सरकार से अपना काम करबाने में कामयाब हो गए। इसका खामियाजा आने वाले दिनों में आम लोगों को भुगतना पड़ सकता है। केंद्र सरकार ने चीनी का निर्यात ओपन जरनल लाइसेंस यानी ओजीएल के तहत करने का फैसला किया है। साथ ही प्याज निर्यात बढ़ाने के लिए इसका न्यूनतम निर्यात मूल्य यानी एमईपी खत्म कर दिया गया है।


इसके अलावा दूसरे खाद्य पदार्थों के निर्यात और आवंटन के लिए प्रधानमंत्री की आर्थिक सलाहकार समिति के अध्यक्ष सी. रंगराजन की अध्यक्षता में समिति बनाने का फैसला किया गया है। प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह की अध्यक्षता में हुई बैठक में ये फैसले किए गए। चीनी निर्यात पर मात्रात्मक प्रतिबंध को भी खत्म कर दिया गया है। अब निर्यातकों को चीनी निर्यात के लिए रिलीज ऑर्डर लेने की आवश्यकता नहीं होगी। चालू पेराई सीजन में पहले ही सरकार 30 लाख टन चीनी निर्यात की अनुमति दे चुकी है।

जानकारों का कहना है कि चीनी निर्यात पर मात्रात्मक प्रतिबंध और रिलीज ऑर्डर की वैधता हटने से उत्तर भारत की चीनी मिलों को नुकसान होगा जबकि महाराष्ट्र और दक्षिण भारत की मिलें फायदे में रहेंगी। यानी इसका फायदा अप्रत्यक्ष रुप से शरद पवार को होगा। क्योंकि चीनी बाजार के एक बहुत बड़े हिस्से पर उनका कब्जा है। सूत्रों का मानना है कि कृषि मंत्री और महाराष्ट्र के कद्दावर नेता शरद पवार के दबाव में सरकार को यह फैसला करना पड़ा है। विदेशों में चीनी भेजे जाने के से देश में चीनी की किल्लत पैदा होगी जिससे महंगाई के इस दौर में कीमतें और बढ़ेंगी। जिसका खामियाजा आम लोगों को उठाना पड़ेगा।