रविवार, 3 जून 2007

मोनोपोली और कार्टलाइजेशन बनाम सरकार

भारतीय इकॉनोमी के खुलने से पहले यानी 1991 के पहले देश में मोनोपोली का जोर हुआ करता था। तब हर क्षेत्रों में गिनी चुनी कंपनियां थीं। जो अपनी मनमानी करती थीं। जो मर्जी होता था वो कीमत लोगों से वसूला करती थीं। इसका एक सीधा सा उदाहरण है बिड़ला का हिंदुस्तान मोटर्स जो कि एम्बैस्डर कार बनाती है। ये कंपनी इस साल अपनी 50 वीं वर्षगांठ मना रही है यानी गोल्डेन जुबली। लेकिन आज के दिन कंपनी के पास केवल गोल्डन यादें ही बची रह गई हैं। क्योंकि आज कार बाजार में इसका मार्केट शेयर नाम मात्र का ही बच गया है। आज हर साल करीब 14 लाख कारें बिकती हैं जिसमें एम्बैस्डर खरीदने वालों की संख्यां होती है करीब 15 हजार। लेकिन वो भी एक समय था जब हिंदुस्तान मोटर्स की मोनोपोली का जोर करीब तीन दशकों तक लोगों की सरों पर तांडव करता रहा। लोगों से मनमानी कीमत वसूलता रहा। यही नहीं मनमानी कीमत देने के बावजूद लोगों को एम्बैस्डर की सवारी के लिए महीनों इंतजार करना पड़ता था। वहीं रसूख वाले लोगों और लालफीताशाही वालों को सवारी का मौका पहले मिल जाया करता था। तब भारतीय कार बाजार के 70 परसेंट हिस्से पर इसका कब्जा हुआ करता था। 1980 के दशक में इंदिरा गांधी के पुत्र संजय गांधी ने देश में मारूति की नींब रखी। जिसके बाद मारूति की बहाव में एम्बैस्डर बह गया। और छोटी कार यानी पीपुल्स कार बनाने वाली मारूति देश में कार बनाने वाली नंबर वन कंपनी बन गई। आज देश में छोटी बड़ी कार खरीदने के कई ऑप्शन मौजूद हैं। लेकिन देश की इकॉनोमी के ओपन होने के बाद आज एक दूसरी तरह की समस्या देश के सामने सुरसा की भांति मुंह बाए खड़ी है। इस समस्या का नाम है कार्टलाइजेशन जिसने सरकार की नींद उड़ा रखी है। इससे बचने के लिए प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह को कार्टलाइजेशन से परहेज करने की अपील करनी पड़ी। आखिर क्या है कार्टलाइजेशन ? ये मोनोपोली का ही एक्सटेंशन है । जिसमें किसी क्षेत्र की सारी कंपनियां मिलकर कीमतों को जानबूझकर चढ़ाए रखती है। उन्हें ये चिंता नहीं होती की इससे देश की ग्रोथ पर क्या असर पड़ रहा है या लोगों के बजट कितने लहूलुहान हो रहे हैं। कार्टलाइजेशन का एक सीधा सा उदाहरण देखने को मिला सीमेंट इंडस्ट्री में। जहां कंपनियों ने आपस में मिलकर भाव को सातवें आसमान पर चढ़ा दिया। सरकार ने इसपर लगाम लगाने के तमाम कोशिश की। सीमेंट के उत्पादन पर दोहरा उत्पाद कर लागा दिए। इंपोर्ट ड्यूटी खत्म कर दी। फिर भी कंपनियों ने भाव नीचे नहीं किए। तो सरकार ने महंगे सीमेंट पर उत्पाद कर में कुछ छूट के साथ एडवैल्यूरेम ड्यूटी लगा दी। यानी टैक्स की अनंत सीमा। अब कंपनियां जितना ज्यादा भाव पर सीमेंट बेचेंगी उन्हें उसी अनुपात में टैक्स देना होगा। हालांकि इससे भी कीमतों पर पूरी तरह से लगाम लगा पाना संभव नहीं दिख रहा है। प्राइवेटाइजेशन के इस युग में अब प्राइवेटाइजेशन पर सवाल उठने लगा है। क्योंकि यही देखा जा रहा है जिन क्षेत्रों में सरकारी कंपनियों की पकड़ ढ़ीली है वहां या तो मोनोपोली हावी हो जाता है या कार्टलाइजेशन। जबकि जिन क्षेत्रों में सरकार के पैर जमे हैं वहां इसतरह की समस्या नहीं देखने को मिलती है। इसका उदाहरण है पेट्रोलियम और टेलीकॉम सेक्टर। इन दो क्षेत्रों में सरकार की कई सरकारी दिग्गज कंपनियां जैसे आईओसी, बीपीसीएल, एचपीसीएल, ओएऩजीसी, बीएसएनएल, एमटीएनएल अनपे झंडे गाड़ चुकी हैं। और सरकारी कंपनियां जैसा करती हैं प्राइवेट कंपनियों को वैसा करना होता है। चाहे वो फोन पर सस्ता बात करना हो या सस्ते पेट्रोल और डीजल बेचना। प्राइवेट कंपनियों को इसे फॉलो करना पड़ता है। और जो कंपनियां ऐसा नहीं करतीं उन्हें मुश्किलों का सामना करना होता है। जैसा कि रिलायंस इंडस्ट्रीज के तेल मार्केटिंग डिवीजन को करना पड़ रहा है। कार्टलाइजेशन की समस्या को ध्यान में रखकर सरकार को चाहिए कि कम से कम उन क्षेत्रों में सरकारी कंपनियों के प्राइवेटाइजेशन पर रोक लगाए जहां लोगों के ज्यादा से ज्यादा हित जुड़े हैं। क्योंकि यही एक बेहतर तरीका होगा प्राइवेट कंपनियों के कार्टलाइजेशन और मोनोपोली पर रोक लगाने का।

5 टिप्‍पणियां:

chandrakant ने कहा…

रंजन साहब सचमुच मुद्दा गंभीर है। जब बजाज के स्कूटर, गैस कनेक्शन और कार के लिए लाइन खत्म हुई तो लगा कि हां सचमुच खुली अर्थव्यवस्था बहुत फायदे की है। अर्थव्यस्था खुलती जा रही है लेकिन सीमेंट कंपनियों का ये सांठगांठ अब इस खुली अर्थव्यवस्था को ठेंगा दिखा रहा है। बढ़िया है।

Alok Vani ने कहा…

राजीव भाई, बात तो सही कह रहे हैं कि एंबेसडर कार खरीदने या गैस कनेक्‍शन मिल जाने पर लोग मिठाइयां बांटते थे। लेकिन आपने लिखा है कि जहां सरकारी कंपनियां उस सेक्‍टर में सब कुछ ठीक है लेकिन ये सब कुछ ठीक भी तो प्राइवेट खिलाडि़यों के आने के बाद ही हुआ है। वरना पहले यहीं आपका डिपार्टमेंट ऑफ टेलीकॉम आपको फोन कहां दे पाता था लेकिन आप सुबह फोन के लिए आवेदन करिए तो शाम को डब्‍बा लेकर हाजिर हो जाएंगे। यानी प्राइवेट कंपनियों के आने से ही इसकी कुंभकर्णी नींद टूटी है। अब बात कार्टलाइजेशन की तो देखिए ये तो ओपन इकोनॉमी का गिफ्ट है। मुझे याद है जब मनमोहन सिंह ने प्रधानमंत्री पद की शपथ ली तो कहा था कि हमारी सरकार उदारीकरण का मानवीय ढंग से लागू करेगी अब तो उसी मानवी य चेहरे का इंतजार है। लगे रहिए निवेश गुरु पर बढि़या लगा संडे स्‍पेशल आर्टिकल।

aty ने कहा…

Rajivji ye kafi aachi shuruat hai bas isse jari raheye aur apni blog ko thoda popular banane ki koshish kijeyega taki yeh wakai un logo tak pahuch sake jiye ke liye aapne iske suruwat ki hai.

Unknown ने कहा…

sir,
aap ke iss koshish ko hum salam karte hai!

Unknown ने कहा…

जिन्दा लोगों की तलाश! मर्जी आपकी, आग्रह हमारा!!

काले अंग्रेजों के विरुद्ध जारी संघर्ष को आगे बढाने के लिये, यह टिप्पणी प्रदर्शित होती रहे, आपका इतना सहयोग मिल सके तो भी कम नहीं होगा।
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उक्त शीर्षक पढकर अटपटा जरूर लग रहा होगा, लेकिन सच में इस देश को कुछ जिन्दा लोगों की तलाश है। सागर की तलाश में हम सिर्फ सिर्फ बूंद मात्र हैं, लेकिन सागर बूंद को नकार नहीं सकता। बूंद के बिना सागर को कोई फर्क नहीं पडता हो, लेकिन बूंद का सागर के बिना कोई अस्तित्व नहीं है।

आग्रह है कि बूंद से सागर में मिलन की दुरूह राह में आप सहित प्रत्येक संवेदनशील व्यक्ति का सहयोग जरूरी है। यदि यह टिप्पणी प्रदर्शित होगी तो निश्चय ही विचार की यात्रा में आप भी सारथी बन जायेंगे।

हम ऐसे कुछ जिन्दा लोगों की तलाश में हैं, जिनके दिल में भगत सिंह जैसा जज्बा तो हो, लेकिन इस जज्बे की आग से अपने आपको जलने से बचाने की समझ भी हो, क्योंकि जोश में भगत सिंह ने यही नासमझी की थी। जिसका दुःख आने वाली पीढियों को सदैव सताता रहेगा। गौरे अंग्रेजों के खिलाफ भगत सिंह, सुभाष चन्द्र बोस, असफाकउल्लाह खाँ, चन्द्र शेखर आजाद जैसे असंख्य आजादी के दीवानों की भांति अलख जगाने वाले समर्पित और जिन्दादिल लोगों की आज के काले अंग्रेजों के आतंक के खिलाफ बुद्धिमतापूर्ण तरीके से लडने हेतु तलाश है।

इस देश में कानून का संरक्षण प्राप्त गुण्डों का राज कायम हो चुका है। सरकार द्वारा देश का विकास एवं उत्थान करने व जवाबदेह प्रशासनिक ढांचा खडा करने के लिये, हमसे हजारों तरीकों से टेक्स वूसला जाता है, लेकिन राजनेताओं के साथ-साथ अफसरशाही ने इस देश को खोखला और लोकतन्त्र को पंगु बना दिया गया है।

अफसर, जिन्हें संविधान में लोक सेवक (जनता के नौकर) कहा गया है, हकीकत में जनता के स्वामी बन बैठे हैं। सरकारी धन को डकारना और जनता पर अत्याचार करना इन्होंने कानूनी अधिकार समझ लिया है। कुछ स्वार्थी लोग इनका साथ देकर देश की अस्सी प्रतिशत जनता का कदम-कदम पर शोषण एवं तिरस्कार कर रहे हैं।

अतः हमें समझना होगा कि आज देश में भूख, चोरी, डकैती, मिलावट, जासूसी, नक्सलवाद, कालाबाजारी, मंहगाई आदि जो कुछ भी गैर-कानूनी ताण्डव हो रहा है, उसका सबसे बडा कारण है, भ्रष्ट एवं बेलगाम अफसरशाही द्वारा सत्ता का मनमाना दुरुपयोग करके भी कानून के शिकंजे बच निकलना।

शहीद-ए-आजम भगत सिंह के आदर्शों को सामने रखकर 1993 में स्थापित-ष्भ्रष्टाचार एवं अत्याचार अन्वेषण संस्थानष् (बास)-के 17 राज्यों में सेवारत 4300 से अधिक रजिस्टर्ड आजीवन सदस्यों की ओर से दूसरा सवाल-

सरकारी कुर्सी पर बैठकर, भेदभाव, मनमानी, भ्रष्टाचार, अत्याचार, शोषण और गैर-कानूनी काम करने वाले लोक सेवकों को भारतीय दण्ड विधानों के तहत कठोर सजा नहीं मिलने के कारण आम व्यक्ति की प्रगति में रुकावट एवं देश की एकता, शान्ति, सम्प्रभुता और धर्म-निरपेक्षता को लगातार खतरा पैदा हो रहा है! हम हमारे इन नौकरों (लोक सेवकों) को यों हीं कब तक सहते रहेंगे?

जो भी व्यक्ति स्वेच्छा से इस जनान्दोलन से जुडना चाहें, उसका स्वागत है और निःशुल्क सदस्यता फार्म प्राप्ति हेतु लिखें :-
डॉ. पुरुषोत्तम मीणा, राष्ट्रीय अध्यक्ष
भ्रष्टाचार एवं अत्याचार अन्वेषण संस्थान (बास)
राष्ट्रीय अध्यक्ष का कार्यालय
7, तँवर कॉलोनी, खातीपुरा रोड, जयपुर-302006 (राजस्थान)
फोन : 0141-2222225 (सायं : 7 से 8) मो. 098285-02666
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